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छठा उद्देशक ६२४८.एयाणि य अन्नाणि य, पलवियवं सो अणिच्छियव्वाई।
कुसलेण अमच्चेणं, खरगेणं सो उवाएणं॥ इन प्रलापों तथा अन्य अनीप्सित अनेक प्रलापों से प्रलाप कर रहे सातवाहन राजा को खरक नामक कुशल अमात्य ने उपाय से प्रतिबोध दिया। ६२४९.विद्दवितं केणं ति व, तुब्भेहिं पायतालणा खरए।
कत्थ त्ति मारिओ सो, दुट्ठ त्ति य दरिसिते भोगा॥ राजा को प्रतिबोध देने के लिए मंत्री ने खंभे और भीतें खंडित कर दीं। राजा ने पूछा-यह विनाश किसने किया? अमात्य ने कहा-आपने। तब राजा ने पैरों से अमात्य खरक की ताड़ना की। लोगों ने उसे उठाकर कहीं छुपा दिया। एक दिन किसी प्रयोजनवश राजा ने पूछा-अमात्य कहां है? सामंत बोले उसको तो मार डाला। तब राजा ने सोचा-मैंने यह उचित नहीं दिया, बहुत बुरा किया। राजा स्वस्थ हुआ। तब अमात्य को लाकर दिखाया। राजा प्रसन्न हुआ। उसे भोग-पारितोषिक देकर संतुष्ट किया। यह लौकिक दीप्तचित्त का उदाहरण है। लोकोत्तरिक का दृष्टांत यह है। ६२५०.महज्झयण भत्त खीरे, कंबलग पडिग्गहे य फलए य।
पासाए कप्पट्टी, वातं काऊण वा दित्ता॥ किसी साध्वी ने आगम का महाध्ययन-पौण्डरीक आदि सीख लिया या गांव में उत्कृष्ट भक्त प्राप्त कर लिया, क्षीर प्राप्त हो गई, उत्कृष्ट कंबल मिल गया, पात्र और फलक भी अच्छा मिला, रहने के लिए उत्तम उपाश्रय मिला, एक धनिक की सुंदर कन्या मिल गई, वाद में जीत हुई-इन सब प्रसंगों से वह दीप्तचित्त हो गई। ६२५१.दिवसेण पोरिसीए, तुमए पढितं इमाए अद्धेणं।
एतीए णत्थि गव्वो, दुम्मेहतरीए को तुज्झं। आचार्य ने उस दीप्सचित्त साध्वी से कहा-तुमने यह महाध्ययन एक दिन में अथवा एक पौरुषी में सीखा और इस साध्वी ने आधे दिन में या आधी पौरुषी में सीख लिया। तुम इससे मंदबुद्धि हो। इसको कोई गर्व नहीं है तो तुमको कैसा गर्व? ६२५२.तहव्वस्स दुगुंछण, दिट्ठतो भावणा असरिसेणं।
काऊण होति दित्ता, वादकरणे तत्थ जा ओमा॥ जिन उत्कृष्ट द्रव्यों की प्राप्ति होने के कारण दीप्तचित्तता हुई है, उन द्रव्यों की जुगुप्सा करते हुए उनके विपरिणामों का कथन करना चाहिए। अथवा उस साध्वी को भी इससे शतगुणित अच्छे द्रव्यों की प्राप्ति हुई थी। इस प्रकार दृष्टांत की भावना से उसकी प्राप्ति को हीन बतानी चाहिए। वाद करने के कारण जो दीसचित्त हुई हो तो उस प्रचंड परवादिनी
को पहले प्रतिबुद्ध कर, वहां बुलाकर, किसी छोटी साध्वी से वाद में उसे पराजित करना चाहिए। उससे वह दीप्त साध्वी स्वस्थ हो सकती है। ६२५३.दुल्लभदव्वे देसे, पडिसेहितगं अलद्धपुव्वं वा।
आहारोवहि वसही, अक्खतजोणी व धूया वि॥ जिस देश में द्रव्यों की प्राप्ति दुर्लभ है, जहां दुर्लभ द्रव्यों का प्रतिषेध है, जहां वे द्रव्य अलब्धपूर्व हैं, वहां उन्हें प्राप्त कर कोई साध्वी दीसचित्त हो जाती है। अथवा उत्कृष्ट आहार, उपधि, वसति अथवा अक्षतयोनिका ईश्वरकन्या प्रास कर कोई दीप्तचित्त हो जाती है। ६२५४.पगयम्मि पण्णवेत्ता, विज्जाति विसोधि कम्ममादी वा।
खुड्डीय बहुविहे आणियम्मि ओभावणा पउणा।। प्रकृत-विशिष्टतर भक्त-पान, क्षीर, आदि के लिए किसी श्रावक या इतर व्यक्ति को प्रज्ञापित कर विद्या आदि तथा कार्मण का प्रयोग कर क्षुल्लिका साध्वी द्वारा उन द्रव्यों को संपादित किया जाता है। जब वह क्षुल्लिका साध्वी बहुविध द्रव्य लाती है तब उसकी अपभ्राजना की जाती है। यह देखकर वह दीप्तचित्त साध्वी स्वस्थ हो जाती है। इस विधि से प्राप्त द्रव्यों के लिए विशोधि-प्रायश्चित्त दिया जाता है। ६२५५.अहिट्ठसड कहणं, आउट्टा अभिणवो य पासादो।
कयमित्ते य विवाहे, सिद्धाइसुता कतितवेणं॥ उस दीप्तचित्त साध्वी ने जिस श्रावक को पहले न देखा हो, उसको जाकर कहना, उसको प्रभावित कर देना। वह उस साध्वी के समक्ष जाकर कहता है-इस क्षुल्लिका के कहने पर आपको यह अभिनव प्रासाद रहने के लिए दिया है। तथा कपटपूर्वक सिद्धपुत्र आदि की पुत्रियों से जो अभी-अभी विवाहित हुई हैं, को उस साध्वी के समक्ष लाकर व्रत की दीक्षा देने की प्रार्थना करानी चाहिए, जिससे उसकी अपभ्राजना हो।
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जक्खाइ8 निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥
(सूत्र १२) ६२५६.पोग्गल असुभसमुदयो, एस अणागंतुगो व दोण्हं पि।
जक्खावेसेणं पुण, नियमा आगंतुको होइ। दोनों-क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त के यह अशुभ पुद्गलों का समुदय अनागंतुक है अर्थात् स्वशरीरसंभवी है। यक्षावेश से जो अशुभ पुद्गल समुदय होता है वह नियमतः आंगतुक होता है।
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