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=बृहत्कल्पभाष्यम् उस गढ़े पर चक्का इस प्रकार रखे जिससे वह उछल कर भी ६२२०.पुत्तादीणं किरियं, सयमेव घरम्मि कोइ कारेति। उस चक्के को छू न सके।
अणुजाणते य तहिं, इमे वि गंतुं पडियरंति॥ ६२१६.निद्ध महरं च भत्तं, करीससेज्जा य णो जहा वातो। यदि कोई क्षिप्तचित्त साध्वी का स्वजन घर में स्वयं ही
देविय धाउक्खोभे, णातुस्सग्गो ततो किरिया॥ अपनी पुत्री आदि से उस साध्वी की क्रिया-चिकित्सा उस क्षिप्तचित्त साध्वी को स्निग्ध और मधुर भोजन दे। करवाता है और साधुओं को निवेदन करने पर वे उसका उसकी शय्या करीषमयी हो। ऐसा प्रयत्न करना चाहिए अनुमोदन करते हैं तो उस साध्वी को वहां ले जाते हैं और जिससे उसके वायु का क्षोभ न हो। सोचना चाहिए कि तब वे गच्छवासी साधु जाकर उसकी प्रतिचर्या करते हैं। क्षिसचित्तता दैविक है या धातुक्षोभ के कारण है? यह जानने ६२२१.ओसह विज्जे देमो, पडिजग्गह णं इहं ठिताऽऽसण्णं। के लिए कायोत्सर्ग करे, फिर देवता के कथनानुसार उसका तेसिं च णाउ भावं, ण देति मा णं गिहीकुज्जा। प्रासुक क्रिया से उपचार करे।
स्वजन यह कहे कि औषधि और वैद्य की हम व्यवस्था ६२१७.अगडे पलाय मग्गण,
करेंगे। केवल तुम हमारे स्थान के निकट प्रदेश में रह कर अण्णगणो वा वि जो ण सारक्खे। साध्वी की प्रतिचर्या करो। तब उन स्वजनों के भावों को गुरुगा जं वा जत्तो,
सूक्ष्मता से जानकर वे साध्वी को नहीं सौंपते अर्थात् उनके
तेसिं च णिवेयणं काउं॥ निकट स्थान में इस आशंका से नहीं ले जाते कि वे साध्वी यदि वह साध्वी अवट-कूप से या अपवरक से पलायन को कहीं गृहस्थ न बना लें। कर जाए तो उसकी मार्गणा करनी चाहिए। आसपास के ६२२२.आहार उवहि सिज्जा, उग्गम-उप्पायणादिसु जयंति। अन्य गणों में भी साध्वी के पलायन की सूचना कर उसके वायादी खोभम्मि व, जयंति पत्तेग मिस्सा वा॥ संरक्षण और संग्रह की बात बताए। गवेषणा और संरक्षण वे प्रतिचरण करने वाले आहार, उपधि और शय्या न करने पर गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा वह क्षिप्तचित्त विषयक उद्गम, उत्पादन आदि में यत्नवान् रहते हैं। यह साध्वी जो विराधना आदि करेगी, उसका प्रायश्चित्त भी। यतना दैविक क्षिप्तचित्तता विषयक है। वायु आदि से होने प्राप्त होता है।
वाले धातुक्षोभ के कारण भी क्षिप्तचित्तता होती है। उसमें ६२१८.छम्मासे पडियरिउं, अणिच्छमाणेसु भुज्जयरओ वा। सांभोगिक या मिश्र अर्थात् असाम्भोगिकों से सम्मिश्र पूर्वोक्त
कुल-गण-संघसमाए, पुव्वगमेणं णिवेदेति॥ प्रकार से यतना करते हैं। पूर्वोक्त प्रकार से छह मास तक उस साध्वी की प्रतिचर्या ६२२३.पुव्वुद्दिट्ठो य विही, इह वि करेंताण होति तह चेव। करनी चाहिए। यदि वह स्वस्थ हो जाए तो अच्छा है,
तेइच्छम्मि कयम्मि य, आदेसा तिण्णि सुद्धा वा॥ अन्यथा पुनः उसका प्रतिचरण करे। यदि वे प्रतिचरण करना पूर्व उद्दिष्ट विधि अर्थात् प्रथम उद्देशक के ग्लानसूत्र में न चाहें तो कुल, गण, संघ का समवाय कर पूर्वगम- प्रतिपादित विधि यहां भी क्षिप्तचित्त की वैयावृत्य करते समय ग्लानद्वार में उक्त प्रकार से उनको निवेदन करे। निवेदन करने जाननी चाहिए। चिकित्सा के पश्चात् स्वस्थ हो जाने पर पर कुल आदि क्रमशः उसका प्रतिचरण करते हैं।
उसके प्रायश्चित्त विषयक तीन आदेश हैं-एक आदेश है ६२१९.रन्नो निवेइयम्मि, तेसिं वयणे गवसणा होति। उसके प्रति गुरुक व्यवहार करना चाहिए। दूसरा आदेश
ओसह वेज्जा संबंधुवस्सए तीसु वी जयणा॥ है-उसके प्रति लघुक व्यवहार करना चाहिए। तीसरा आदेश वह साध्वी राजा की पुत्री अथवा अन्य किसी की है-लघुस्वक व्यवहार होना चाहिए। यहां तीसरा आदेश स्वजन हो सकती है, उन्हें सूचित कर दिया जाता है। व्यवहारसूत्र के अनुसार होने के कारण प्रमाण है। अथवा वह उसके कहने पर उस साध्वी को वहां लाया जाता है। वहां क्षिसचित्त साध्वी शुद्ध है, प्रायश्चित्तभाक् नहीं है, क्योंकि उसकी गवेषणा होती है। उसके संबंधी कहते हैं-हम परवशता के कारण वह राग-द्वेष के अभाव में प्रतिसेवना औषधि आदि तथा वैद्य की व्यवस्था करेंगे। साधु यदि उस करती है। साध्वी के स्वजन हों तो वे कहते हैं तुम हमारे उपाश्रय ६२२४.चउरो य हुंति भंगा, तेसिं वयणम्मि होति पण्णवणा। में रहकर इस साध्वी का प्रतिचरण करो। हम सारी परिसाए मज्झम्मी, पट्ठवणा होति पच्छित्ते॥ व्यवस्था करेंगे। वहां आहार, उपधि और शय्या-इन तीनों वृद्धि-हानि के आधार पर चारित्र के विषय में चार भंग की यतना करे।
होते हैं। आचार्य के वचनों में उसकी प्ररूपणा होती है।
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