Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 321
________________ छठा उद्देशक ६४९ जाता है। परंतु उस स्त्री का तो कहना ही क्या जिसने कभी कहने पर अनवस्थाप्य और नृप को कहने पर दसवां उसको देखा ही नहीं। प्रायश्चित्त पारांचिक प्राप्त होता है। ये सारे दोष संयत और ६१६८.कंटग-कणुए उद्धर, धणितं अवलंब मे भमति भूमी।। संयतियों के परस्पर कंटकोद्धरण में होते हैं। सूलं च बत्थिसीसे, पेल्लेहि घणं थणो फुरति॥ ६१७३.एए चेव य दोसा, अस्संजतिकाहि पच्छकम्मं च। निर्ग्रन्थी ने निर्ग्रन्थ से कहा-मेरे पैरों में कांटा है और गिहिएहिं पच्छकम्म, तम्हा समणेहिं कायव्वं ।। आंखों में कणुक लग गया है। उन दोनों का नीहरण करो। असंयतीस्त्रियों से कंटकोद्धरण कराने पर ये ही दोष होते तुम मुझे दृढ़ता से पकड़ो। मेरे चारों ओर भूमी घूम रही है। हैं तथा उनके पश्चात्कर्म (हाथ धोना) का दोष भी होता है। मेरे वस्तीशीर्ष पर शूल चल रही है, इसलिए स्तन स्फुटित गृहस्थ से कंटकोद्धरण कराता है उसके केवल पश्चात्कर्म का हो रहे हैं। अतः बलपूर्वक उन्हें दबाओ। ही दोष होता है, पूर्वोक्त दोष नहीं होते। अतः श्रमण श्रमणों ६१६९.एए चेव य दोसा, कहिया थीवेद आदिसुत्तेसु। का कंटकोद्धरण करे।। अयपाल-जंबु-सीउण्हपाडणं लोगिगी रोहा॥ ६१७४.एवं सुत्तं अफलं, ये सारे दोष आदि सूत्र अर्थात् सूत्रकृतांग के स्त्रीपरिज्ञा सुत्तनिवातो तु असति समणाणं। आदि अध्ययनों में कहे गए हैं। यहां अजापालक-शीतोष्ण गिहि अण्णतित्थि गिहिणी, जम्बूपातन-इनसे उपलक्षित लौकिकी रोहा का दृष्टांत है। परउत्थिगिणी तिविह भेदो। रोहा नाम की एक परिव्राजिका थी। उसने अजापालक को जिज्ञासु ने कहा यदि निर्ग्रन्थियों से न कराया जाए तो देखा। वह उसमें अनुरक्त हो गई। उसने उसके विज्ञान की सूत्र निरर्थक हो जाएगा। आचार्य ने कहा-सूत्रनिपात श्रमणों परीक्षा करनी चाही। उसके कहने पर वह जम्बू वृक्ष पर के अभाव में मानना चाहिए। कंटकोद्धरण पहले गृहस्थ से, चढ़ा। रोहा ने फल मांगे। उसने कहा-उष्ण फल दूं या उसके अभाव में अन्यतीर्थिक से, उसके अभाव में गृहस्थस्त्री शीतल ? उसने कहा-उष्ण। उसने तब फल तोड़कर जमीन से, उसके अभाव में परतीर्थिकी से। उसके तीन भेद हैंपर फेंक दिए। रोहा ने फूंक कर फल खाए और कहा-ये फल स्थविरा, मध्यमा, तरुणी। यदि गृहस्थ से कंटक नीहरण उष्ण कहां थे? अजापालक ने तब कहा जो उष्ण होता है कराया जाए तो उसे कहे-हाथ मत धोना। यदि वह उसे फूंक-फूंक कर खाया जाता है। परिवाजिका संतुष्ट हो अशौचवादी हो तो हाथ को हाथ से पोंछ लेता है या उसको गई। उसने कहा-मेरी योनि में कांटा चुभ गया है। वह उसे झटक देता है। निकालने लगा। वह हंसी। उसने कहा-कांटा दिखाई नहीं दे ६१७५.जइ सीसम्मि ण पुंछति, रहा है। रोहा ने उसे कोहनी मारी। तणु पोत्तेसु व ण वा वि पप्फोडे। ६१७०.मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फास भावसंबंधो। तो सि अण्णेसि असति, पडिगमणादी दोसा, भुत्तमभुत्ते य णेयव्वा॥ दवं दलंति मा वोदगं घाते॥ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को परस्पर कंटकोद्धरण करते हुए यदि वह अपने हाथ मस्तक से, शरीर से, वस्त्रों से नहीं देखकर मिथ्यात्व होता है, उड्डाह तथा संयम की विराधना पोंछता है तथा न झटकता है और यह सोचता है घर जाकर होती है। स्पर्श से दोनों में भाव संबंध हो जाता है। भुक्तभोगी हाथ धोलूंगा, तब अन्य के अभाव में वह अपना प्रासुक पानी या अमुक्तभोगी-दोनों में प्रतिगमन आदि दोष होते हैं। हाथ धोने के लिए देता है, जिससे वह घर जाकर उदक का ६१७१.दिढे संका भोइय, घाडिग णाती य गामबहिया य। घात न करे। चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तहं दुगं च॥ ६१७६.माया भगिणी धूया, अज्जिय णत्तीय सेस तिविधाओ। ६१७२.आरक्खियपुरिसाणं, तु साहणे पावती भवे मूलं। आगाढे कारणम्मि, कुसलेहिं दोहिं कायव्वं॥ अणवट्ठो सेट्ठीणं, दसमं च णिवस्स कधितम्मि। गृहस्थ के अभाव में नालबद्ध स्त्रियों से भी कराया जा परस्पर कंटकोद्धरण करते हुए देखकर किसी को शंका सकता है। जैसे–माता, भगिनी, बेटी, दादी, पौत्री, आदि। होती है कि यह सारा मैथुन के लिए है तो चतुर्लघु, भोजिक इनके अभाव में शेष अनालबद्ध तीन प्रकार की स्त्रियों से भी को कहने पर चतुर्गुरु, घाटित-मित्रगण को कहने पर कराया जा सकता। वे तीन प्रकार ये हैं स्थविरा, मध्यमा षड्लघु, ज्ञाति को ज्ञापित करने पर षड्गुरु, ग्राम के बाहर और तरुणी। आगाढ़ कारण में दोनों कुशल हों तो परस्पर कहने पर छेद, आरक्षिक पुरुषों को कहने पर मूल, श्रेष्ठी को कंटकोद्धरण कर सकते हैं, करा सकते हैं। वे दोनों ये हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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