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बृहत्कल्पभाष्यम् चिकित्सा और निमित्त बताता है-इस प्रकार मृषावाद बोलने अवमरात्निक पुनः पूछता है। रात्निक वही दोहराता है। अवम पर प्रायश्चित्तप्रस्तार होता है।
को चतुर्गुरु। अवम कहता है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने ६१४४.वच्चइ भणाइ आलोय णिकाए पुच्छिए णिसिद्धे य। पर वे निषेध करते हैं। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर
साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वदमाणे॥ षड्गुरु। अन्य साधु भी कहते हैं-रात्निक ने बिना दिए नहीं ६१४५.मासो लहुओ गुरुओ,
लिए। अवम को छेद। अवम यदि कहता है-गृहस्थ अलीक कहते चउरो लहुगा य होति गुरुगा य।। हैं, तब अवम को मूल। अवम यदि कहता है-ये साधु और गृहस्थ छम्मासा लहु-गुरुगा,
मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य। यदि कहे-ये सब प्रवचन
छेदो मूलं तह दुगं च॥ से बाह्य हैं, तब पारांचिक। अवमरात्निक आचार्य के पास आता है, मासलघु। कहता ६१४९.रातिणितवाइतेणं, है-यह रात्निक मुनि संखड़ी में जाकर दीन तथा करणवचनों
खलिय-मिलिय-पेल्लणाए उदएणं। से याचना करता है आदि आदि। उसको मासगुरु। गुरु देउल मेहुण्णम्मि, रात्निक को कहते हैं-आलोचना करो। रात्निक ने कहा-मैंने
अब्भक्खाणं कुडंगे वा। संखड़ी में ऐसा कुछ नहीं कहा।............. ऐसा कहने पर एक रात्निक मुनि अवमरात्निक को बार-बार शिक्षा देता अभ्याख्यानदाता के चतुर्लघु। अवमरात्निक पुनः पूछता है, था। अवमरानिक ने सोचा-यह 'रत्नाधिकवातद' से अर्थात् रात्निक वही दोहराता है। अवम को चतुर्गुरु। अवम कहता रत्नाधिक के गर्व से मुझे कहता है-तुम उच्चारण में स्खलित है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने पर वे निषेध करते हैं। हो गए। तुम सूत्रपाठों को मिलाकर बोलते हो। वह मुझे हाथों पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर षड्गुरु। साधु भी आकर से प्रेरित करता है। यह मुझे बुरा लगता। मैं प्रतिशोध लेना कहते हैं-उस रात्निक ने संखड़ी में ऐसा कुछ नहीं कहा। चाहता था। एक बार हम दोनों भिक्षा के लिए गए। सोचाअवम को छेद। अवम यदि कहता है कि गृहस्थ अलीक कहते आर्या के देवकुल में या कुडंग में प्रातराश कर पानी पीयेंगे। हैं या सत्य ? उसको तब मूल। अवम यदि कहता है ये वहां गए। इतने में एक परिव्राजिका को उसी दिशा में आती गृहस्थ और साधु मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य। यदि हुई देखकर अवमरात्निक वहां से छिटक कर उपाश्रय में कहे ये सब प्रवचन के बाह्य हैं, तब पारांचिक।
आकर गुरु के समक्ष उस रात्निक पर मैथुन का अभ्याख्यान ६१४६.जा फुसति भाणमेगो, बितिओ अण्णत्थ लड्डते ताव। लगाते हुए बोला
लखूण णीति इयरो, ते दिस्स इमं कुणति कोई।। ६१५०.जेट्ठज्जेण अकज्जं, सज्जं अज्जाघरे कयं अज्जं। एक अवमरात्निक साधु एक घर से भिक्षा लेकर उपाश्रय
उवजीवितो य भंते!, मए वि संसट्ठकप्पोऽत्थ॥ में आया। जब तक वह उस पात्र को साफ कर रहा था तब ज्येष्ठ आर्य ने अभी आर्यागृह में अकार्य-मैथुनसेवन दूसरा अर्थात् रत्नाधिक मुनि अन्य संखड़ी से लड्ड प्राप्त कर किया है। भंते! मैने भी इस प्रसंग में संसृष्टकल्प अर्थात् आ रहा था। अवम मुनि ने उसे देखा और ईर्ष्यावश ऐसा मैथुन प्रतिसेवा का आचरण किया है। आचरण किया।
६१५१.वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए णिसिद्धे य। ६१४७.वच्चइ भणाइ आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य। साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे॥
साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थासे जाव वयमाणे॥ ६१५२.मासो लहुओ गुरुओ, ६१४८.मासो लहुओ गुरुओ,
चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। चउरो लहुगा य होति गुरुगा य।
छम्मासा लहु-गुरुगा, छम्मासा लहु-गुरुगा, .
छेदो मूलं तह दुगं च॥ छेदो मूलं तह दुगं च॥ अवमरात्निक आचार्य के पास आता है, मासलघु। कहता वह अवम साधु गुरु के पास आकर बोला-उस रात्निक मुनि है-रात्निक ने मैथुनसेवन किया है। उसे गुरुमास। गुरु ने ने अमुक घर से बिना दिए मोदक लिए हैं। उसे मासगुरु। गुरु कहा-आर्य! सम्यग् आलोचना करो। रात्निक ने कहा-मैंने रात्निक को कहते हैं-आलोचना करो। रात्निक ने कहा मैं संखड़ी मैथुन की प्रतिसेवना नहीं की। ऐसा कहने पर में गया। वहां मुझे मोदक की प्राप्ति हुई। मैंने मोदक बिना दिए अभ्याख्यानदाता के चतुर्लघु। अवमरात्निक पुनः पूछता है, नहीं लिए। यह कहने पर अभ्याख्यानदाता को चतुर्लघु। रात्निक वही दोहराता है। अवम के चतुर्गुरु। अवम कहता
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