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==बृहत्कल्पभाष्यम्
६१२६.खरसज्झं मउयवइं, अगणेमाणं भणंति फरुसं पि।
दव्वफरुसं च वयणं, वयंति देसिं समासज्जा।। जो कठोरवचन के बिना शिक्षा को स्वीकार नहीं करता, वह खरसाध्य व्यक्ति मृदु वाणी की गणना नहीं करता। उसको परुषवचन में कहना पड़ता है। उसे देशी भाषा में द्रव्यपरुषवचन में कहा जाता है जैसे मालववासी परुषवाक्य होते हैं। ६१२७.भट्टि त्ति अमुगभट्टि, त्ति वा वि एमेव गोमि सामि त्ति।
जह णं भणाति लोगो, भणाति जह देसिमासज्ज॥ भट्टिन्, अमुकभट्टिन्, इति, इसी प्रकार गोमिन, स्वामिन् आदि आदि जैसे-जैसे लोग बोलते हैं, वैसे-वैसे साधु भी देशी भाषा के आधार पर बोलते हैं। ६१२८.खामिय-वोसवियाई, उप्पाएऊण दव्वतो रुट्ठो।
कारणदिक्खिय अनलं, आसंखडिउ त्ति धाडेति॥ कारणवश जिस अयोग्य शिष्य को दीक्षित किया था, उसके साथ क्षमायाचना तथा वैरभाव को व्युत्सृष्ट कर, उसके साथ कृत्रिम अधिकरण करके द्रव्यतः रुष्ट होकर कृत्रिम क्रोध दिखाता हुआ 'आसंखडिक' यह कलहकारी है यह दोष निकालता हुआ उसे गच्छ से निकाल देता है।
६१३०.पत्थारो उ विरचणा, सो जोतिस छंद गणित पच्छित्ते।
पच्छित्तेण तु पगयं, तस्स तु भेदा बहुविगप्पा॥ प्रस्तार का अर्थ है-विरचना, स्थापना। वह प्रस्तार चार प्रकार का है-ज्योतिषप्रस्तार, छन्दःप्रस्तार, गणितप्रस्तार और प्रायश्चित्तप्रस्तार। यहां प्रायश्चित्त प्रस्तार का प्रसंग है। उसके अनेक विकल्प भेद हैं। ६१३१.उग्घातमणुग्घाते, मीसे य पसंगि अप्पसंगी य।
आवज्जण-दाणाई, पडुच्च वत्थु दुपक्खे वी॥ प्रायश्चित्त के दो भेद हैं-उद्घात, अनुद्घात। ये दोनों मिश्र और अमिश्र भी होते हैं। इनके दो प्रकार हैं-प्रसंगी और अप्रसंगी। दोनों के दो-दो प्रकार हैं-आपत्ति प्रायश्चित्त और दान प्रायश्चित्त। ये सारे प्रायश्चित्त दोनों पक्षों-श्रमणपक्ष और श्रमणीपक्ष में वस्तु के आधार पर होते हैं। वस्तु का अर्थ है-आचार्य आदि तथा प्रवर्तिनी आदि, जिसके जो योग्य हो, वह प्रायश्चित्त उसका देना। इसको प्रायश्चित्तप्रस्तार कहा जाता है। ६१३२.जारिसएणऽभिसत्तो,
स चाधिकारी ण तस्स ठाणस्स। सम्मं अपूरयंतो,
पच्चंगिरमप्पणो कुणति॥ जिस प्रकार के अभ्याख्यान से साधु अभिशस है वह साधु अप्रमत्त होने के कारण उस स्थान का अधिकारी नहीं है। इसलिए उस पर अभ्याख्यान लगाकर उसका सम्यक् निर्वाह न करने पर वह स्वयं अपनी आत्मा को प्रत्यंगिर कर डालता है अर्थात् उस दोष का स्वयं भागी बन जाता है। ६१३३.छ च्चेव य पत्थारा, पाणवह मुसे अदत्तदाणे य।
अविरति-अपुरिसवाते, दासावातं च वतमाणे॥ प्रस्तार छह ही हैं-प्राणवधवाद, मृषावादवाद, अदत्तादानवाद, अविरतिकावाद, अपुरुषवाद तथा दासवाद-इन वादों को बोलना। ६१३४.दडुर सुणए सप्पे, मूसग पाणातिवादुदाहरणा।
एतेसिं पत्थारं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ प्राणातिपात के ये उदाहरण हैं-दर्दुर, शुनक, सर्प और मूषक। इनके विषय का प्रस्तार-प्रायश्चित्तरचना यथानुपूर्वी कहूंगा। ६१३५.ओमो चोदिज्जंतो, दुपहियादीसु संपसारेति।
अहमवि णं चोदिस्सं, न य लब्भति तारिसं छेड़ें। रात्निक मुनि अवमरात्निक (ज्येष्ठ मुनि छोटे मुनि) को प्रत्युपेक्षा आदि समाचारी में स्खलित होने पर बार-बार
कप्पस्स पत्थार-पदं
छ कप्पस्स पत्थारा, पण्णत्ता, तं जहा-पाणाइवायस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्स वायं वयमाणे, अदिण्णादाणस्स वायं वयमाणे, अविराइयावायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे। इच्चेए छ कप्पस्स पत्थारे पत्थरेत्ता सम्म अप्पडिपूरेमाणे तट्ठाणपत्ते सिया॥
(सूत्र २)
६१२९.तुल्लहिकरणा संखा, तुल्लहिगारो व वादिओ दोसो।
अहवा अयमधिगारो, सा आवत्ती इहं दाणं॥ पूर्वसूत्र और प्रस्तुतसूत्र--दोनों का संख्या से तुल्याधि- करण हैं, दोनों में सूत्र समान हैं, छह-छह हैं। अथवा वाचिक दोष तुल्याधिकार है। अथवा यह अधिकार है-पूर्व सूत्रोक्त शोधि आपत्तिरूप थी। प्रस्तुत में उसी शोधि के दान का अधिकार है।
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