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छठा उद्देशक
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का कारण तुम जानो। तथा सखेद अत्यंत शिथिलगात्र होकर भार से तूटे हुए भारवाहक की भांति निःश्वास लेता हुआ मैं भी रतिक्रिया के पश्चात् अनेक बार वैसा हो जाता हूं। इससे लज्जित होकर मैंने दम संयम को स्वीकार किया है। ६११६.अरे हरे बंभण पुत्ता, अव्वो बप्पो त्ति भाय मामो त्ति।
भट्टिय सामिय गोमिय, लहुओ लहुआ य गुरुआ य॥ यदि साधु अरे या हरे या ब्राह्मण या पुत्र-इन आमंत्रण वचनों को बोलता है तो उसे मासलघु, और मां, पिता, भाई, मामा-ऐसा कहता है तो चतुर्लघु तथा भट्टिन, स्वामिन, गोमिन् आदि गौरवास्पद वचन कहता है तो चतुर्गुरुक तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। ६११७.संथवमादी दोसा, हवंति धी मुंड! को व तुह बंधू।
मिच्छत्तं दिय वयणे, ओभावणता य सामि ति॥ संस्तववाचक शब्द (पिता, माता आदि) बोलने से प्रतिबंध आदि अनेक दोष होते हैं। किसी को बन्धु कहने से वह रुष्ट होकर कहता है-धिग् मुंड! कौन है यहां तुम्हारा बंधु ? द्विज आदि कहने पर मिथ्यात्व होता है। स्वामिन् आदि कहने पर प्रवचन की अपभ्राजना होती है। ६११८.खामित-वोसविताई, अधिकरणाइं तु जे उईरति।
ते पावा णायव्वा, तेसिं च परूवणा इणमो॥ जिस व्यक्ति ने अधिकरणों-कलहों को क्षामित-वचन से शमित कर दिया है तथा व्युत्सृष्ट-मन से निकाल दिया है, वह यदि उन अधिकरणों की उदीरणा करता है, तो उसे पापधर्मा मानो। ऐसे व्यक्तियों की यह प्ररूपणा है। ६११९.उप्पायग उप्पण्णे, संबद्धे कक्खडे य बाहू य।
आवट्टणा य मच्छण, समुघायऽतिवायणा चेव।। ६१२०.लहुओ लहुगा गुरुगा,
छम्मासा होंति लहुग गुरुगा य। छेदो मूलं च तहा,
अणवठ्ठप्पो य पारंची॥ एक बार दो मुनियों में कलह हो गया। दोनों ने परस्पर क्षमायाचना कर कलह को उपशांत कर दिया। कुछ काल के पश्चात् दोनों मिले तब एक ने कहा-'अरे! उस दिन तुमने मुझे ऐसा-वैसा कहा' यह कलह उत्पादक कहलाता है। उसको मासलघु। दूसरा बोला-'उस समय क्या तुमने मुझे कम कहा था ?'-पुनः दोनों में कलह उत्पन्न हो गया। दोनों संबद्ध अर्थात् वचनों से परस्पर आक्रोश करने लगे। इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त। तटस्थ व्यक्तियों द्वारा उपशांत करने पर भी अनुपशांत रहे, कर्कश बने रहे। इसका प्रायश्चित्त है षडलघु। दोनों बाहयुद्ध करने लगे। प्रायश्चित्त है षड्गुरुक।
आवर्तन-एक मुनि ने दूसरे को पीट कर नीचे गिरा दिया। उसे छेद। यदि मुनि मूर्च्छित हो जाए तो मूल। मारणांतिक समुद्घात में अनवस्थाप्य तथा अतिपातना-मरण हो जाने पर पारांचिक। ६१२१.पढमं विगिंचणट्ठा, उवलंभ विविंचणा य दोसु भवे।
अणुसासणाय देसी, छठे य वगिंचणा भणिता॥ प्रथम अलीकवचन अयोग्य शिष्य को गण से निष्काशन करने के लिए कहा जाता है। हीलित और खिसित-ये दो वचन क्रमशः उपालंभ और विवेचना-अयोग्य शिष्य के परित्याग में बोले जाते हैं। अनुशासना में परुषवचन, देशीभाषा में गृहस्थवचन, छठा अर्थात् व्यवशमित उदीरणावचन शैक्ष की विगिंचणा के संबंध में कहा जाता है। ६१२२.कारणियदिक्खितं तीरियम्मि कज्जे जहंति अणलं तू।
संजम-जसरक्खट्ठा, होढं दाऊण य पलादी॥ कारण अर्थात् अशिव आदि में अनल-अयोग्य शैक्ष को भी दीक्षित करते हैं। कार्य (कारण) के निष्पन्न हो जाने पर उस शिष्य का परित्याग कर देते हैं। वे आचार्य संयमयश अर्थात् प्रवचन के यश की रक्षा के लिए उस पर 'होढ़' गाढ़ अलीक का आरोप लगाकर पलायन कर जाते हैं शीघ्रता से अन्यत्र चले जाते हैं। ६१२३.केणेस गणि त्ति कतो,
अहो! गणी भणति वा गणिं अगणिं। एवं विसीतमाणस्स
कुणति गणिणो उवालंभ। किसने इसको गणी बना डाला। अथवा अहो! यह गणी है! अथवा गणी को अगणी कहता है। इस प्रकार वह सामाचारी आदि में अनुपयुक्त गणी को उपालंभ देता है। ६१२४.अगणिं पि भणाति गणिं,
जति नाम पढेज्ज गारवेण वि ता। एमेव सेसएसु वि,
वायगमादीसु जोएज्जा॥ कोई मुनि बहुत प्रेरित करने पर भी नहीं पढ़ता तो अगणी होते हुए भी उसे गणी इसलिए कहा जाता है कि वह गौरववश पढ़ने लगे। इसी प्रकार वाचक आदि शेष पदों के विषय में योजित करना चाहिए। ६१२५.खिंसावयणविहाणा, जे च्चिय जाती-कुलादि पुव्वुत्ता।
कारणियदिक्खियाणं, ते च्चेव विगिंचणोवाया। जो जाति, कुल आदि खिंसनावचन के विधान पूर्वोक्त हैं वे ही कारणवश दीक्षित अयोग्य शिष्यों के निष्काशन के उपाय मानने चाहिए।
आवदा
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