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=बृहत्कल्पभाष्यम् है। अस्तमितभोजी के प्रतिसमय अविशुद्ध्यमान काल होता ५८०५.पंचूण तिभागऽद्धे, तिभाग सेसे य पंच मोत्तु संलेहं। है, इसलिए वह गुरुतर है।
तम्मि वि सो चेव गमो, णायं पुण पंचहि गतेहिं। ५८०२.गेण्हण गहिए आलोयण, नमोक्कारे भुंजणे य संलेहे। भावप्रायश्चित्त में जो द्रव्यनिष्पन्न चारणागम कहा है, वही
सुद्धो विगिंचमाणो, अविगिंचण सोहि दव्व भावे य॥ यहां जानना चाहिए। यदि पांच कवल खाने के बाद ज्ञात हो अनुदित और अस्तमित समय में ग्रहण करने के लिए कि सूर्य अनुदित है या अस्तमित है, उसके पश्चात् भी यदि प्रस्थित होना, यह गवेषणा ही है, गृहीत करने पर ज्ञात शेष पचीस कवल को खाता है तो मासलघु। तीन भागहीन होना, आलोचना करते समय ज्ञात होना, भोजन करते शेष बीस कवलों को खाता है तो मासगुरु। अर्द्ध अर्थात् समय नमुक्कार का स्मरण करते समय ज्ञात होना भोजन पन्द्रह कवलों को खाता है तो चतुर्लघु। त्रिभाग-दस कवलों करते हुए ज्ञात होना, संलेखना कल्प करते समय ज्ञात को खाता है तो चतुर्गुरु। पांच शेष कवल खाता है तो होना-इन समयों में लिए हुए भक्त-पान को यदि परिष्ठापन षड्लघु। संलेखनाशेष खाने पर षड्गुरु। तीस कवल थे। पांच कर देता है तो वह शुद्ध है। वह प्रायश्चित्ती नहीं होता। जो कवलों को खाने के पश्चात् पचीस कवल अज्ञात अवस्था में परिष्ठापन नहीं करता उसे द्रव्यतः और भावतः प्रायश्चित्त खा लिए। शेष पांच कवलों को खाने से षडलघु। आता है।
५८०६.एमेवऽभिक्खगहणे, भावे ततियम्मि भिक्खुणो मूलं। ५८०३.संलेह पण तिभाए,
एमेव गणा-ऽऽयरिए, सपया सपदं हसति इक्कं ।। ___ अवड्ढ दोभाए पंच मोत्तु भिक्खुस्स। इसी प्रकार बार-बार ग्रहण करने पर भावनिष्पन्न मास चउ छ च्च लहु-गुरु,
प्रायश्चित्त होता है। यह भिक्षु के लिए है। दूसरी बार अभिक्खगहणे तिसू मूलं॥ मासगुरुक से छेद पर्यन्त जाता है। तीसरी बार चतुर्लधु से जो सूर्य के अनुदित और अस्तमित जानते हुए भी। मूल पर्यन्त जाता है। इसी प्रकार उपाध्याय और आचार्य 'संलेख'-तीन कवल प्रमाण शेष बचे हुए को खाता है उसे के विषय में जानना चाहिए। स्वपद से एकपद कम होता है। मासलघु, जो पांच कवल प्रमाण को खाता है उसे मासगुरु, उपाध्याय के प्रथम बार में मासगुरु से प्रारब्ध होकर त्रिभाग-दस कवल में चतुर्लघु, अपार्ध-पन्द्रह कवल में तीसरी बार में अनवस्थाप्य में ठहरता है। आचार्य के प्रथम चतुर्गुरु, दो भाग-बीस कवल में षड्लघु, तीस में से पांच को वार में चतुर्लघुक से प्रारंभ कर तीसरी बार में पारांचिक में छोड़कर अर्थात् पचीस कवल में षड्गुरु। इस प्रकार जैसे-जैसे ठहरता है। द्रव्य की वृद्धि होती है वैसे-वैसे प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। ५८०७.संथडिओ संथरेतो, संतयभोजी व होइ नायव्वो। बार-बार ग्रहण करने पर, दूसरी बार में मासगुरु से प्रारंभ कर पज्जत्तं अलभंतो, असंथडी छिन्नभत्तो य॥ छेद पर्यन्त और तीसरी बार ग्रहण करने पर चतुर्लघु से ___ संस्तृत वह होता है जो पर्याप्त भक्तपान मिलने पर प्रारंभकर मूल पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है।
निर्वाह कर लेता है अथवा जो सतत भोजी होता है वह ५८०४.एमेव गणा-ऽऽयरिए, अणवठ्ठप्पो य होति पारंची। संस्तृत होता है। जिसको पर्याप्त भक्तपान प्राप्त नहीं होता
तम्मि वि सो चेव गमो, भावे पडिलोम वोच्छामि।। अथवा जो उपवास आदि से 'छिन्नभक्त' होता है वह इसी प्रकार गणी-उपाध्याय और आचार्य विषयक यही असंस्तृत है। चारणिका है। उपाध्याय को प्रथम बार मासगुरु से प्रारंभ ५८०८. निस्संकमणुदितोऽतिच्छितो व सूरो त्ति गेण्हती जो उ। कर छेद पर्यन्त, दूसरी बार चतुर्लघु से प्रारंभ कर मूल
उदित धरेते वि हु सो, लग्गति अविसुद्धपरिणामो। पर्यन्त, तीसरी बार चतुर्गुरु से प्रारंभ कर अनवस्थाप्य जो मुनि निःशंकरूप से यह मानता हुआ कि सूर्य अनुदित पर्यन्त। आचार्य के प्रथम बार चतुर्लघु से मूल पर्यन्त, दूसरी है या अतिक्रान्त हो गया है फिर भी भक्तपान लेता है और बार चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और तीसरी बार षड्लघु यद्यपि सूर्य उदित है या अनस्तमित फिर भी अशुद्ध परिणामों से पारांचिक पर्यन्त। यह द्रव्य निष्पन्न प्रायश्चित्त है। भाव में के कारण वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रतिलोम प्रायश्चित्त कहूंगा। पूर्व में द्रव्यवृद्धि से प्रायश्चित्त ५८०९.एमेव य उदिउ त्ति व, धरइ त्ति व सोढमुवगतं जस्स। वृद्धि बताई गई। यहां जैसे-जैसे द्रव्य की परिहानि होती है, स विवज्जए विसुद्धो, विसुद्धपरिणामसंजुत्तो॥ वैसे-वैसे परिणामों की संक्लिष्टता बढ़ती जाती है, इससे इसी प्रकार जिस मुनि के चित्त में यह अभिप्राय उत्पन्न प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है, वह मैं कहूंगा।
होता है कि सूर्य उदित हो गया है या अभी तक अस्तंगत
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