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बृहत्कल्पभाष्यम् चलने वाले सागारिक के साथ जाए। मौन न रहें, शब्द परिवासियभोयण-पदं करते हुए जाएं। ५९९२.तुसिणीए चउगुरुगा, मिच्छत्ते सारियस्स वा संका।
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पडिबुद्धबोहियासु व, सागारिय कज्जदीवणया॥
पारियासियस्स आहारस्स जाव वहां यदि शब्द किए बिना प्रवेश करते हैं तो चतुर्गुरु, तयप्पमाणमेत्तमवि भूइप्पमाणमेत्तमवि मिथ्यात्व का प्रसंग तथा सागारिक को शंका हो सकती है।
बिंदुप्पमाणमेत्तमवि आहारमाहारित्तए, वहां सबसे पहले सागारिक को जागृत करना चाहिए। वह
नण्णत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं॥ साध्वियों को जगाता है। फिर उस सागारिक को अपने आगमन का प्रयोजन बताना चाहिए। कार्य बताते हुए उसे
(सूत्र ३७) कहना चाहिए–'एक साधु को सर्प ने काट डाला है। यहां औषधि है। उसके लिए हम आये हैं।'
५९९७.उदिओऽयमणाहारो, इमं तु सुत्तं पड़च्च आहारं। ५९९३.मोयं ति देइ गणिणी, थोवं चिय ओसह लहुं हा।
अत्थे वा निसि मोयं, पिज्जति सेसं पि मा एवं॥ ___मा मग्गेज्ज सगारो, पडिसेहे वा वि वुच्छेओ। मोक लक्षण वाला अनाहार पूर्वसूत्र में कहा गया है।
सर्पदंश की औषधि है-मोक। वह हमें दो। गणिनी प्रस्तुत सूत्र आहार से संबंधित है। अर्थतः मोक रात्री में भी मोक लाकर साधुओं को देती हुई कहती है यह औषधि पिया जाता है। शेष आहार रात्री में न खाया जाए, इसलिए थोड़ी ही है। शीघ्र इस ले जाएं। कोई सागारिक इस प्रस्तुत सूत्र का आरंभ है। औषधि को मांग न ले। यदि उसे प्रतिषेध किया जाए ५९९८. परिवासियआहारस्स मग्गणा आहारो को भवे अणाहारो। तो उसका व्यवच्छेद हो जाता है, वह पुनः उसकी मार्गणा आहारो एगंगिओ, चउव्विहो जं वऽतीइ तहिं॥ नहीं करता।
परिवासित आहार की मार्गणा करनी चाहिए। शिष्य ने ५९९४.न वि ते कहंति अमुगो,खइओ ण वि ताव एय अमुईए। पूछा-भंते ! आहार क्या है और अनाहार क्या है? आचार्य ने
घेत्तुं णयणं खिप्पं, ते वि य वसहिं सयमुवेति॥ कहा-आहार एकांगिक अर्थात् शुद्ध तथा क्षुधा को शांत करने वे मुनि साध्वियों को यह भी नहीं कहते कि अमुक वाला होता है। आहार के चार प्रकार है-अशन, पान, साधु को सर्प ने काटा है और वे साध्वियां भी यह नहीं खादिम और स्वादिम या आहार में जो दूसरी वस्तुएं नमक कहतीं कि यह मोक अमुक साध्वी का है। उस मोक को आदि डाली जाती हैं, वे भी आहार हैं। शीघ्र ले जाना चाहिए। वे मुनि उसे लेकर स्वयं अपनी ५९९९.कूरो नासेइ छुहं, एगंगी तक्क-उदग-मज्जाई। वसति में आ जाते हैं।
खाइमे फल-मसाई, साइमे महु-फाणियाईणि।। ५९९५.जायति सिणेहो एवं, भिण्णरहस्सत्तया य वीसंभो। अशन में एकांगिक कूर-भात आदि भोजन क्षुधा का नाश
तम्हा न कहेयव्वं, को व गुणो होइ कहिएणं॥ करता है और पानक में-एकांगिक तक्र, उदक, मद्य आदि यदि यह कहा जाए कि अमुक साधु को सर्प ने काटा है प्यास को मिटाती है। खादिम में फल आदि, स्वादिम में या अमुक साध्वी का यह मोक है तो दोनों में स्नेह हो सकता मधु-फाणित आदि-ये सारे आहार का कार्य करती हैं। है। भिन्नरहस्यता होती है और उससे विभ्रम-पूर्ण घनिष्टता ६०००.जं पुण खुहापसमणे, असमत्थेगंगि होइ लोणाई। होती है। इसलिए कहना नहीं चाहिए। कहने से कौन सा गुण तं पि य होताऽऽहारो, आहारजुयं व विजुतं वा। होता है? कोई नहीं।
जो एकांगिक क्षुधाशमन में असमर्थ हो, जैसे--लवण ५९९६.सागारिसहिय नियमा, दीवगहत्था वए जईनिलय।। आदि, वह भी आहार से संयुक्त या असंयुक्त होकर आहार
सागारियं तु बोहे, सो वि जई स एव य विही उ॥ होता है। अशन में लवण, हींग, जीरा आदि उपयोग में आर्यिका नियमतः सागारिकसहित दीपक के साथ आते हैं। साधुओं के प्रतिश्रय में आती हैं। आर्यिका के साथ आने ६००१.उदए कप्पूराई, फलि सुत्ताईणि सिंगबेर गुले। वाला सागारिक संयत प्रतिश्रय में रहने वाले सागारिक को
न य ताणि खविंति खुहं, उवगारित्ता उ आहारो॥ जागृत करता है। वह साधुओं को जागृत करता है। यहां भी उदक में कपूर आदि, आम आदि फलों में सुत्त आदि मोक देने की वही पूर्वोक्त विधि जाननी चाहिए।
शूठ में गुड़ डाला जाता है। कपूर आदि सारे द्रव्य भूख
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