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पांचवां उद्देशक=
और यथालघुक बीस दिन परिमाण-यह लघुक पक्ष में निग्रह कर प्रवचन की उद्भावना की है, अतः तुमको थोड़ा प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। लघुस्वक व्यवहार पन्द्रह दिन, प्रायश्चित्त दिया है। यह सुनकर अतिपरिणत और अपरिणत लघुस्वतरक दश दिन और यथालघुस्वक पांच दिन परिमाण शिष्य सोचते हैं यह इतने मात्र प्रायश्चित्त से दोषमुक्त का प्रायश्चित्त। अथवा यथालघुस्वक व्यवहार शुद्ध होता है, हो गया। यदि वह शिष्य पूर्व का कोई अन्य प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त नहीं आता।
वहन कर रहा हो तो वह गुरु से सबके सामने कहता ६०४३.गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होइ दसमं तु। है आपने मुझे पहले यह प्रायश्चित्त दिया था उसे मैं वहन
अहगुरुग दुवालसम, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ कर रहा हूं। एकमासपरिमाण वाला गुरुक व्यवहार अष्टम से चातुर्मास प्रमाण वाला गुरुतरक व्यवहार दशम से और पुलागभत्त-पदं छहमास प्रमाण वाला यथागुरुक व्यवहार द्वादश से पूरा हो जाता है। यह गुरुक पक्ष में अर्थात् गुरुव्यवहार के पूर्ति
___निग्गंथीए य गाहावइकुलं विषयक तपःप्रतिपत्ति है।
पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठाए अण्णयरे ६०४४.छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल एगठाण पुरिमहूं। पुलागभत्ते पडिग्गाहिए सिया, सा य
निव्वीयं दायव्वं, अहालहुसगम्मि सुद्धो वा॥ संथरेज्जा, कप्पइ से तदिवसं तेणेव तीस दिन प्रमाण वाला लघुक व्यवहार षष्ठ से दो दिन भत्तद्वेणं पज्जोसवेत्तए, नो से कप्पइ दोच्चं के उपवास से, पचीस दिन प्रमाण वाला लघुतरक व्यवहार
पि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए उपवास से तथा बीस दिन प्रमाण वाला यथालघुक व्यवहार
पविसित्तए। सा य नो संथरेज्जा एवं से आचाम्ल से पूरा हो जाता है। यह तीन प्रकार के लघुक व्यवहार की तपःप्रतिपत्ति है। पन्द्रह दिन प्रमाण वाला
कप्पइ दोच्चं पि गाहावइकुलं लघुस्वकव्यवहार एकस्थान से, दस दिन प्रमाण वाला
पिंडवायपडियाए पविसित्तए॥ लघुस्वतरकव्यवहार पूर्वार्द्ध से, पांच दिन प्रमाण वाला
-त्ति बेमि यथालघुस्वकव्यवहार निर्विकृति से पूरा हो जाता है। कोई
(सूत्र ४१) मुनि परिहारतपप्रायश्चित्त वहन कर रहा हो और उसके प्रति यदि यथालघुस्वक व्यवहार की प्रस्थापना करनी हो तो वह ६०४७.उत्तरियपच्चयट्ठा, सुत्तमिणं मा हु हुज्ज बहिभावो। आलोचनामात्र से शुद्ध है क्योंकि उसने कारण में यतनापूर्वक जससारक्खणमुभए, सुत्तारंभो उ वइणीए॥ प्रतिसेवना की है।
लोकोत्तरिक अपरिणामक तथा अतिपरिणामक शिष्यों के ६०४५.जं इत्थं तुह रोयइ, इमे व गिण्हाहि अंतिमे पंच। प्रत्यय के लिए यह सूत्र अर्थात् अनन्तरोक्तसूत्र कहा गया है।
हत्थं व भमाडेउं, जं अक्कमते तगं वहइ॥ पूर्वोक्त का बहिर्भाव न हो, इसलिए वह उपक्रम था। प्रस्तुत इस प्रायश्चित्त के प्रस्तार की रचना कर आचार्य कहते सूत्रारंभ व्रतिनीविषयक उभय लोक इहलोक और परलोक में हैं-शिष्य! इन प्रायश्चित्तों में से तुमको जो रुचिकर लगे उसे यश में संरक्षण के लिए है। ग्रहण करो। यह अंतिम जो पांच रातदिन का प्रायश्चित्त है ६०४८.तिविहं होइ पुलागं, धण्णे गंधे य रसपुलाए य। उसे ग्रहण करो। तब वह शिष्य यथालघुस्वक प्रायश्चित्त
चउगुरुगाऽऽयरियाई, समणीणुद्दद्दरग्गहणे।। लेता है। अथवा हाथ को घुमाकर गुरु जिस प्रायश्चित्त के पुलाक के तीन प्रकार हैं-धान्यपुलाक, गंधपुलाक, लिए कहते हैं उसे ग्रहण कर लेता है।
रसपुलाक। यदि आचार्य प्रवर्तिनी को यह सूत्र नहीं कहते हैं ६०४६.उब्भावियं पवयणं, थोवं ते तेण मा पुणो कासि।। तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि प्रवर्तिनी आर्याओं
अइपरिणएसु अन्नं, बेइ वहतो तगं एयं॥ को नहीं कहती है तो चतुर्गुरु और आर्याएं स्वीकार नहीं आचार्य उस शिष्य को कहते हैं किसी अपराध पर करती हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आर्याएं तुमको पारिहारिक तप का प्रायश्चित्त दिया गया था। अब यदि ऊर्ध्वदर-सुभिक्ष में पुलाक ग्रहण करती हैं तो चतुर्गुरु वैसा अपराध पुनः मत करना। इस बार तुमने परवादी का का प्रायश्चित्त है।
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