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प्रायश्चित्त प्रास होने तक प्रयत्नपूर्वक परिवासित करने पर भी अदोष है। (इन तैलों की सर्वथा अप्राप्ति होने पर गुरु के लिए मुनि स्वयं इन तैलों को पकाए।)
अहालहुसगववहार-पदं
परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच्च अइक्कमेज्जा, तं च थेरा जाणेज्जा अप्पणो आगमेणं अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया॥
(सूत्र ४०)
६०३३.निक्कारणपडिसेवी, अजयणकारी व कारणे साहू।
अदुवा चिअत्तकिच्चे, परिहारं पाउणे जोगो॥ जो निष्कारण प्रतिसेवी है, जो साधु कारण में अयतनाकारी है अथवा जो त्यक्तकृत्य-स्वस्थ होने पर भी म्रक्षण आदि क्रिया को नहीं छोड़ता, वह परिहारतप को प्राप्त होता है, यह योग है, संबंध है। ६०३४.परिहारिओ य गच्छे, आसण्णे गच्छ वाइणा कज्जं।
आगमणं तहिं गमणं, कारण पडिसेवणा वाए॥ गच्छ में कोई पारिहारिक है। निकटस्थ किसी अन्यगच्छ में वादी का कार्य उत्पन्न हो गया। उस गच्छ से एक संघाटक आया और उसने आचार्य से कहा-वादी साधु को भेजो। गुरु के आदेश से वह पारिहारिक तप करने वाला मुनि वहां गया। वहां जाकर वाद के प्रसंग में उसने ये प्रतिसेवनाएं की। ६०३५.पाया व दंता व सिया उ धोया,
वा-बुद्धिहेतुं व पणीयभत्तं। तं वातिगं वा मइ-सत्तहेउं,
सभाजयट्ठा सिचयं व सुक्कं । उसने पैर और दांत धोए। बुद्धि की स्थिरता के लिए प्रणीत-भोजन किया। मति के लिए तथा शक्ति के लिए विकट-मद्य का सेवन किया। सभी को जीतने के लिए सफेद वस्त्र धारण किए। ६०३६.थेरा पुण जाणंती, आगमओ अहव अण्णओ सुच्चा।
परिसाए मज्झम्मि, पट्ठवणा होइ पच्छित्ते॥
=बृहत्कल्पभाष्यम् उसने ये प्रतिसेवनाएं कीं। उसके लौट आने पर स्थविरआचार्य जान लेते हैं अथवा अन्यतः सुनकर जान लेते हैं। तब उसके लिए परिषद् में प्रायश्चित्त की प्रस्थापना करनी चाहिए। ६०३७.नव-दस-चउदस-ओही
मणनाणी केवली य आगमिउं। सो चेवण्णो उ भवे,
तदणुचरो वा वि उवगो वा॥ वे आचार्य नौपूर्वी, दशपूर्वी, चतुर्दशपूर्वी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी हो सकते हैं। वे अतिशय ज्ञान से जानकर प्रायश्चित्त देते हैं। अन्य अर्थात् उसी पारिहारिक से आलोचना सुनकर अथवा उसके अनुचर से अथवा 'उक्क'-वह व्यक्ति जो पारिहारिक से कहीं से आ मिला हो-इनसे सुनकर। ६०३८.तेसिं पच्चयहेउं, जे पेसविया सुयं व तं जेहिं।
भयहेउ सेसगाण य, इमा उ आरोवणारयणा॥ जिनको पारिहारिक के साथ भेजा था, उनके विश्वास के लिए, जिन्होंने प्रतिसेवना सुनी उनके विश्वास के लिए तथा शेष शिष्यों के भय के लिए यह आरोपणारचना-व्यवहारप्रस्थापना करनी चाहिए। ६०३९.गुरुओ गुरुअतराओ, अहागुरूओ य होइ ववहारो।
लहुओ लहुयतराओ, अहालहू होइ ववहारो॥ ६०४०.लहुसो लहुसतराओ, अहालहूसो अ होइ ववहारो।
एतेसिं पच्छित्तं, वुच्छामि अहाणुपुवीए॥ व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरुक, लघुक, लघुस्वक। गुरुक के तीन प्रकार हैं-गुरुक, गुरुतरक, यथागुरुक। लघुक के तीन प्रकार हैं-लघु, लघुतर, यथालघु। लघुस्वक के तीन प्रकार हैं-लघुस्वक, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक। इन व्यवहारों का यथानुपूर्वी से यथोक्तपरिपाटी से प्रायश्चित्त कहूंगा। ६०४१.गुरुगो य होइ मासो, गुरुगतरागो भवे चउम्मासो।
अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ गुरुक व्यवहार मासपरिमाण वाला होता है। गुरुतरक चतुर्मासपरिणाम वाला और यथागुरुक छह मास परिमाण वाला होता है। गुरुक पक्ष में यह प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। ६०४२.तीसा य पण्णवीसा, वीसा वि य होइ लहुयपक्खम्मि।
पन्नरस दस य पंच य, अहालहसगम्मि सुद्धो वा॥ लघुक व्यवहार तीस दिन परिमाण, लघुतरक पचीस दिन
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