________________
६२८ का उपशमन हो। वह भैषज द्रव्य तीन प्रकार का है-वात, पित्त और श्लेष्म को शांत करने वाला या तीनों का उपशमन करने वाला।
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पारियासिएणं आलेवणजाएणं गायाई आलिंपित्तए वा विलिंपित्तए वा. नण्णत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं॥
(सूत्र ३८)
६०१३.जइ भुत्तुं पडिसिद्धो, परिवासे मा हु को वि मक्खट्ठा।
वुत्तो वा पक्खेवे, आहारो इमं तु लेवम्मि॥ यदि परिवासित आहार को खाना प्रतिषिद्ध है तो कोई परिवासित द्रव्य म्रक्षण के लिए काम में न ले, इसके लिए प्रस्तुत सूत्र का आरंभ है। पूर्वसूत्र में प्रक्षेप आहार विषयक कथन है, प्रस्तुत सूत्र आलेप विषयक है। ६०१४.अभिंतरमालेवो, वुत्तो सुत्तं इमं तु बज्झम्मि।
अहवा सो पक्खेवो, लोमाहारे इमं सुत्तं॥ अथवा पूर्वसूत्र में आभ्यन्तर आलेप के विषय में कहा है, प्रस्तुत सूत्र बाह्य आलेप विषयक है। अथवा वह प्रक्षेप आहार विषयक था। यह सूत्र लोमाहार विषयक है। ६०१५.मक्खेऊणं लिप्पइ, एस कमो होति वणतिगिच्छाए।
जइ ते ण तं पमाणं, मा कुण किरियं सरीरस्स॥ व्रणचिकित्सा में पहले व्रण का प्रक्षण किया जाता है, पश्चात् उस पर लेप किया जाता है-यह क्रम है। यदि तुम्हारे लिए यह प्रमाण न हो तो तुम कभी शरीर की क्रिया-चिकित्सा मत कराना। ६०१६.आलेवणेण पउणइ, जो उ वणो मक्खणेण किं तत्थ।
होहिइ वणो व मा मे, आलेवो दिज्जई समणं॥ आचार्य ने कहा-यह एकान्तमत नहीं है कि व्रण पर म्रक्षण और आलेपन-दोनों हों। कहीं एक से काम हो जाता है और कहीं दोनों करने होते हैं। जो व्रण आलेपन से उपशांत हो जाता है वहां म्रक्षण का क्या प्रयोजन? मेरे व्रण न हो इसलिए उसको आलेपशमन की औषध दी जाती है। ६०१७.अच्चाउरे उ कज्जे, करिति जहलाभ कत्थ परिवाडी।
अणुपुव्वि संतविभवे, जुज्जइ न उ सव्वजाईसु॥ अत्यातुर कार्य में अर्थात् आगाढ़ रोग में जिससे लाभ हो वैसी चिकित्सा की जाती है। उसमें कोई परिपाटी-क्रम नहीं
=बृहत्कल्पभाष्यम् होता। जो वैभवशाली है उसकी चिकित्सा में आनुपूर्वीपरिपाटी होती है, सभी जातियों में नहीं। ६०१८.सुत्तम्मि कड्डियम्मि, आलेव ठविंति चउलहू होति।
आणाइणो य दोसा, विराहणा इमेहिं ठाणेहिं।। सूत्र में कथित हो जाने के कारण यदि कोई रात्री में आलेप रखता है तो उसे चतुर्लघु और आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं और इन स्थानों में विराधना होती है। ६०१९.निद्धे दवे पणीए, आवज्जण पाण तक्कणा झरणा।
__ आयंक विवच्चासे, सेसे लहुगा य गुरुगा य॥ स्निग्ध, द्रव और प्रणीत आलेप रात्री में रखने में प्राणियों का आपतन, और तर्कणा होती है। पात्र से द्रव्य झरता है। इसमें दोष प्राग्वत्। रोग में विपर्यास से चिकित्सा करने पर प्रायश्चित्त आता है। बिना कारण परिवासित रखता है, प्रासुक रखने पर चतुर्लघु, अप्रासुक रखने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। ६०२०.ति च्चिय संचयदोसा,
तयाविसे लाल छिवण लिहणं वा। अंबीभूयं बिइए,
उज्झमणुज्झंति जे दोसा॥ आलेप आदि रात्री में रखने से वे ही संचय आदि दोष होते हैं। त्वग्विष-सर्प उसका स्पर्श करता है, लालाविष उसको जीभ से चाटता है, दूसरे दिन अम्ल हो जाने से उसका परिष्ठापन किया जाता है, परिष्ठापन न करने पर जो दोष होते हैं, वे प्राप्त होते हैं। ६०२१.दिवसे दिवसे गहणं, पिट्ठमपिढे य होइ जयणाए।
आगाढे निक्खिवणं, अपिट्ट पिटे य जयणाए। प्रयोजन होने पर प्रतिदिन उसका ग्रहण करना चाहिए। सबसे पहले पिष्ट का ग्रहण करना चाहिए पश्चात् अपिष्ट का यतनापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। आगाढ़ रोग में आलेप का निक्षेपण-परिवासन भी किया जा सकता है। वह भी अपिष्ट या पिष्ट का यतनापूर्वक करना चाहिए। ६०२२.आगाढे अणागाढं, अणगाढे वा वि कुणइ आगाढं।
एवं तु विवच्चासं, कुणइ व वाए कफतिगिच्छं। आगाढ़ ग्लानत्व में अनागाढ़ क्रिया करने पर चतुर्गुरु, अनागाढ़ में आगाढ़ क्रिया करने पर चतुर्लघु। अथवा वायु चिकित्सनीय है और करता है कफ की चिकित्सा, अथवा कफ चिकित्सनीय है और करता है वायु की चिकित्सा-यह सारा विपर्यास है। ६०२३.अगिलाणो खलु सेसो, दव्वाईतिविहआवइजढो वा।
पच्छित्ते मग्गणया, परिवासिंतस्सिमा तस्स॥
हा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org