________________
पांचवां उद्देशक
६२७ को नहीं मिटाते, परन्तु ये उपकारी होने के कारण आहार जाते हैं तो प्राणी उसमें आ गिरते हैं। अन्य प्राणियों की माने जाते हैं।
तर्कणा होती है वे उसके चारों ओर घूमते हैं। भाजन से वह ६००२.अहवा जं भुक्खत्तो, कद्दमउवमाइ पक्खिवइ कोटे। द्रव पदार्थ झरता है तो पात्र के नीचे प्राणी एकत्रित हो जाते
__ सव्वो सो आहारो, ओसहमाई पुणो भइतो॥ हैं। शिष्य ने कहा-ये दोष आहार में दृष्ट हैं, इसलिए
अथवा भूख से पीड़ित व्यक्ति कर्दम के सदृश मिट्टी आदि अनाहार परिवासित करना कल्पता है। जो कुछ अपनी कुक्षी में प्रक्षिप्त करता है वह सारा आहार ६००८.सुत्तभणियं तु निद्धं, कहलाता है। औषध आदि में विकल्प है-वह आहार भी है
तं चिय अदवं सिया अतिल्ल-वसं। और अनाहार भी है।
सोवीरग-दुराई, ६००३.जं वा भुक्खत्तस्स उ, संकसमाणस्स देइ अस्सातं।
दवं अलेवाड लेवाडं। सव्वो सो आहारो, अकामऽणिटुं चऽणाहारो॥ सूत्र में जो कहा है कि तैल और वसा से वर्जित जो घृत अथवा क्षुधार्त व्यक्ति को जिस द्रव्य को चबाते हुए आदि अद्रव होता है वही स्निग्ध कहलाता है। जो सौवीर कवल-प्रक्षेप जैसा आस्वाद आता है वह सारा आहार है। द्रवादिक अलेपकृत है, जो दुग्ध आदि लेपकृत हैं-ये दोनों द्रव तथा बिना मन खाए जाने वाला तथा अनिष्ट आहार सारा ___कहलाते हैं। अनाहार है।
६००९.गूढसिणेहं उल्लं, तु खज्जगं मक्खियं व जं बाहिं। ६००४.अणहारो मोय छल्ली, मूलं च फलं च होतऽणाहारो। नेहागाढं कुसणं, तु एवमाई पणीयं तु॥
सेस तय-भूइ-तोयंबिंदुम्मि व चउगुरू आणा॥ गूढस्नेह वाले घृतपूर आदि आर्द्रखाद्यक प्रणीत कहलाते मोक-कायिकी, छाल, मूल और फल-आंवला, हैं, अथवा बाहर से स्नेह से प्रक्षित मंडक आदि तथा हरीतकी, बेहरड़-ये सारे अनाहार हैं। शेष आहार है। उस स्नेहावगाढ़ कुसण आदि प्रणीत कहलाते हैं। परिवासित आहार का तिलतुषत्वगमात्र, अंगुली पर लगे ६०१०.अणहारो विन कप्पइ, दोसा तेचे उतनी भूतिमात्र इतना भी यदि कोई खाता है, पान का
तद्दिवसं जयणाए, बिइयं आगाढ संविग्गे॥ बिन्दुमात्र भी पीता है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा अनाहार भी स्थापित करना नहीं कल्पता। आहार संबंधी आज्ञाभंग आदि दोष।
जो दोष कहे गए हैं, वे सारे इसमें भी होते हैं। जिस दिन ६००५.मिच्छत्ता-ऽसंचइए, विराहणा सत्तु पाणजाईओ। प्रयोजन हो उस दिन अनाहार द्रव्य लाकर यतनापूर्वक उसे
सम्मुच्छणा य तक्कण, दवे य दोसा इमे होति॥ रखे। द्वितीय पद में आगाढ़ कारण में संविग्न मुनि उसको - मुनि यदि अशन आदि को परिवासित रखता है तो स्थापित कर सकता है। मिथ्यात्व आता है। लोग उड्डाह करते हैं कि ये तो ६०११.जह कारणे अणहारो, उ कप्पई तह भवेज्ज इयरो वी। असंचिक असंग्रही हैं। इससे संयम और आत्मविराधना वोच्छिण्णम्मि मडंबे, बिइयं अद्धाणमाईसु॥ होती है। सत्तू आदि में जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। चूहे जैसे कारणवश अनाहार द्रव्य स्थापित करना कल्पता है, आदि उसको खाने की इच्छा करते हैं। द्रव पदार्थ में ये वैसे ही आहार भी कारणवश स्थापित करना कल्पता है। वक्ष्यमाण दोष होते हैं।
शिष्य ने पूछा-कैसे? आचार्य कहते हैं-मडंब के व्यवच्छिन्न ६००६.सेह गिहिणा व दिद्वे, मिच्छत्तं कहमसंचया समणा। हो जाने पर वहां रहने वाले मुनि अपवाद का सेवन करते हैं।
संचयमिणं करेंती, अण्णत्थ वि नूण एमेव॥ जैसे कारणवश पिप्पल आदि का सेवन करते हैं, वैसे ही शैक्ष या गृहस्थ परिवासित अशन आदि को देखकर अपवादस्वरूप आहार आदि की भी स्थापना करते हैं। मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। ये श्रमण असंचयशील अध्वप्रतिपन्न मुनि अध्वकल्प की स्थापना करते हैं। कैसे? ये इस प्रकार संचय करते हैं। अन्यत्र भी इनका ६०१२.वुच्छिण्णम्मि मडंबे, सहसरुगुप्पायउवसमनिमित्तं। आचरण ऐसा ही होगा।
दिद्वत्थाई तं चिय, गिण्हती तिविह भेसज्जं॥ ६००७.निद्धे दवे पणीए, आवज्जण पाण तक्कणा झरणा। मडंब के व्यवच्छिन्न होने पर सहसा किसी मुनि के रोग
___ आहारे दिट्ठ दोसा, कप्पइ तम्हा अणाहारो॥ उत्पन्न हो सकता है। उसके उपशमन के लिए दृष्टार्थ गीतार्थ स्निग्ध और प्रणीत द्रव पदार्थ यदि रात्री में स्थापित किए आदि मुनि अनागत में ही उसी द्रव्य को लेते हैं, जिससे रोग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org