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छठा उद्देशक ६०७७.छल्लहुगा उ णियत्ते, आलोएंतम्मि छग्गुरू होति।
परिहरमाणा वि कहं, अप्परिहारी भवे छेदो॥ ६०७८.किं परिहरंति णणु खाणु-कंटए सव्वे तुब्भे हं एगो।
सव्वे तुब्भे बहि पवयणस्स पारंचिओ होति॥ किसी मुनि ने उद्यान में अवसन्न साधुओं को देखा उपाश्रय में आकर बोला-मैंने पारिहारिक साधुओं को देखा। इस प्रकार छलपूर्वक कहने वाले को मासलघु। साधुओं ने पूछा-कहां देखा? उसने कहा-उद्यान में। इस प्रकार कहने पर मासगुरु। पारिहारिक साधुओं को देखने के लिए उपाश्रय से मुनि चले और जब तक उन्हें देख नहीं लेते तब तक उस कहने वाले को चतुर्लघु और देख लेने पर चतुर्गुरु। 'ये मुनि अवसन्न हैं। ऐसा सोचकर वे साधु वहां से लौट आए। तब उस कहने वाले को षड्लघु, वे साधु आचार्य के पास आलोचना करते हैं, तब षड्गुरु, वह मुनि उत्तर-प्रत्युत्तर करता हुआ कहता है-वे उद्यानस्थ मुनि परिहार करते हुए भी अपरिहारी कैसे? ऐसा कहने वाले को छेद। साधुओं ने तब कहा-वे क्या परिहार करते हैं जिससे उनको पारिहारिक कहा जाए? तब वह कहता है-वे कंटक, स्थाणु आदि का परिहार करते हैं, इस प्रकार कहने वाले को मूल। अन्त में उसने कहा-तुम सब एक हो, मैं अकेला हूं। इस प्रकार कहने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। उसने तब कहा-तुम सब प्रवचन से बाह्य हो-ऐसा कहने वाले को पारांचिक प्रायश्चित्त है। ६०७९.किं छागलेण जंपह, किं मं होप्पेह एवऽजाणंता।
बहुएहिं को विरोहो, सलभेहि व नागपोतस्स। उसने तब कहा-तुम क्यों इस प्रकार 'छागल न्याय' से बोल रहे हो? अर्थात् क्यों बकरे की भांति प्रलाप कर रहे हो? तुम मुझे ऐसा नहीं जानते हुए भी मेरा गला पकड़ कर क्यों प्रेरित कर रहे हो? अथवा बहुतों के साथ मेरा क्या विरोध है? हाथी के बच्चे का शलभों के साथ कैसा विरोध? ६०८०.भणइ य दिट्ठ नियत्ते, आलोए आमं ति घोडगमुहीओ।
माणुस सव्वे एगे, सव्वे बाहिं पवयणस्स॥ ६०८१.मासो लहुओ गुरुओ,
चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। छम्मासा लहु-गुरुगा,
छेओ मूलं तह दुगं च॥ एक साधु बाहर से प्रतिश्रय में आया और साधुओं से बोला-आज मैंने एक आश्चर्य देखा। पूछने पर कहा-घोड़े के मुंहवाली स्त्रियों को देखा। कहां? उद्यान में। ऐसा कहने वाले
को मासगुरु। देखने के लिए साधु प्रस्थित होते हैं तो चतुर्लघु, घोड़ियों को देख लेने पर चतुर्गुरु, साधुओं के लौट आने पर षड्लघु, गुरु के समक्ष आलोचना करने पर षड्गुरु, गुरु के पूछने पर यदि कहता है-आमं-हां, घोटकमुखी स्त्रियों को देखा। ऐसा कहने पर छेद। साधुओं ने उससे कहा-उनको तुम स्त्रियां कहते हो? वह बोला तो क्या वे मनुष्य हैं? इस प्रकार कहने पर मूल। फिर वह मुनि बोला-तुम सब एक हो गए हो। मैं अकेला हूं। इस प्रकार कहने पर अनवस्थाप्य और 'तुम सब प्रवचन के बाह्य हो'-ऐसा कहने पर पारांचिक। ६०८२.सव्वेगत्था मूलं, अहगं इक्कल्लगो य अणवट्ठो।
सव्वे बहिभावा पवयणस्स वयमाणे चरिमं तु॥ प्रकारान्तर प्रायश्चित्त-'तुम सब एक हो' ऐसा कहने पर मूल, “मैं अकेला हूं' ऐसा कहने पर अनवस्थाप्य, 'तुम सब प्रवचन के बाह्य हो' ऐसा कहने पर पारांचिक। ६०८३.किं छागलेण जंपह, किं मं हंफेह एवऽजाणंता।
बहुएहिं को विरोहो, सलभेहि व नागपोयस्स। उसने तब कहा-तुम क्यों इस प्रकार 'छागल न्याय' से बोल रहे हो? अर्थात् क्यों बकरे की भांति प्रलाप कर रहे हो? तुम मुझे ऐसा नहीं जानते हुए भी मेरा गला पकड़ कर क्यों प्रेरित कर रहे हो? अथवा बहुतों के साथ मेरा क्या विरोध है? हाथी के बच्चे का शलभों के साथ कैसा विरोध? ६०८४.गच्छसि ण ताव गच्छं,
किं खु ण जासि त्ति पुच्छितो भणति। वेला ण ताव जायति,
परलोगं वा वि मोक्खं वा॥ एक साधु ने दूसरे से पूछा-जाओगे। 'हां' जाऊंगा। अरे! तुम अभी तक नहीं गए, यह पूछने पर वह कहता है-अभी तक परलोक या मोक्ष जाने की वेला नहीं हुई है। ६०८५.कतरं दिसं गमिस्ससि, पुव्वं अवरं गतो भणति पुट्ठो।
किं वा ण होति पुव्वा, इमा दिसा अवरगामस्स॥ एक साधु ने दूसरे से पूछा-किस दिशा में जाओगे? उसने कहा-पूर्व दिशा में। कुछ समय पश्चात् वह पश्चिम दिशा में चला गया। वहां वह साधु मिल गया। उसने पूछाअरे! यह क्या! तुमने पूर्व दिशा में जाने को कहा था, पश्चिम दिशा में कैसे आ गए? वह बोला-क्या अपरग्राम से यह पूर्व दिशा नहीं है? है ही। ६०८६.अहमेगकुलं गच्छं, वच्चह बहुकुलपवेसणे पुट्ठो।
भणति कहं दोण्णि कुले, एगसरीरेण पविसिस्सं॥
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