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पशु-पक्षी स्रोतोवगाहन करते हैं वहां रहने वाली आर्याओं के चतुर्लघु और यदि आर्या उसमें परिणत होती है तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। द्वितीय पद में आगाद कारण में इन्द्रिय और श्रोत (योनि) में परामर्श को चाहती है।
५९२७. गिहिणिस्सा एगागी, ताहिं समं णिति रत्तिमुभयस्सा ।
दंडगसारक्खणया, वारिंति दिवा य पेल्लंते ॥ कारणवश कोई एकाकिनी साध्वी गृहस्थ की निश्रा में रहती है तो वह रात्री में प्रस्रवण और उच्चार के व्युत्सर्जन में वहां की स्त्रियों के साथ बाहर जाती है और वानर आदि के उपद्रव में डंडे से अपना संरक्षण करती है। वह दिन में भी प्रतिश्रय में प्रवेश करने वाले वानरों का निवारण करती है।
५९२८. अट्ठाण सद्द आलिंगणादिपाकम्मऽतिच्छिता संती ।
अच्चित्त बिंब अणिहुत, कुलघर सड्डादिगे चेव ॥ किसी साध्वी के मोहोद्भव हो गया तो उसे उस स्थिति में शब्दप्रतिबद्ध वसति में रखना चाहिए। वहां से वह स्त्रियों के साथ किए जाने वाले आलिंगन आदि को देख सके। इससे मोहकर्म उपशांत न हो तो पादकर्म, उससे भी यदि उपशांत न हो तो अचित्त बिंब से प्रतिसेवना कराई जाती है। यदि उससे भी उपशांत न हो तो जो अनिभृत पुरुष - नपुंसक से सब कुछ कराए, तत्पश्चात् कुलगृह में भगिनी या भोजाई के साथ होने वाले आलिंगन आदि दिखाए जाते हैं। उसके अभाव में श्राविका का या यथाभद्रिका का दिखाया जाता है।
बंभचेरसुरक्खापदं
नो कप्पइ निम्गंथीए एमाणियाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा, एवं गामाणुगामं वा दूइज्जित्तए वा वासावासं वा वत्थए ॥
(सूत्र १५)
५९२९.बंभवयरक्खणट्ठा, एगधिगारा तु होंतिमे जा एगपाससायी, विसेसतो ब्रह्मव्रत की रक्षा के लिए पूर्वोक्त दो सूत्र प्रस्तुत सारे 'एकपार्श्वशायिसूत्र' पर्यन्त
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सुत्ता। संजतीवग्गे ॥
कहे गए हैं। सभी सूत्र
बृहत्कल्पभाष्यम्
एकाधिकार वाले उसी ब्रह्मव्रत की रक्षा के लिए कहे जाते हैं। विशेषतः संयतीवर्ग के लिए ये सारे सूत्र हैं। इनमें किंचित् निर्ग्रन्थों के लिए है, जैसे- एकाकिसूत्र ।
५९३०. एगागी वच्चंती, अप्पा त महव्वता परिच्चत्ता ।
लहु गुरु लहुगा गुरुगा, भिक्ख वियारे वसहि गामे ॥ अकेली जाती हुई निर्ग्रन्थी आत्मा को तथा महाव्रतों को परित्यक्त कर देती है। यदि भिक्षाचर्या में एकाकिनी जाती है तो लघुमास, बहिर्विचारभूमी में जाने पर गुरुमास, वसति में एकाकी जाने पर चतुर्लघु, ग्रामानुग्राम एकाकी जाने पर चतुर्गुरु ।
५९३१. मासादी जा गुरुगा, थेरी- खुड्डी- विमज्झ-तरुणीणं । तव कालविसिट्ठा वा, चउसुं पि चउण्ह मासाई || स्थविरा यदि अकेली भिक्षा आदि के लिए जाती है तो मासलघु, क्षुल्लिका का मासगुरु, विमध्यमा का चतुर्लघु और तरुणी का चतुर्गुरु । अथवा क्षुल्लिका के इन चारों स्थानों में चार मास गुरु तप और काल से विशेषित करने चाहिए । विमध्यमा के चारों स्थानों में चारलघु, तप और काल से विशेषित तथा तरुणी के चारों स्थानों में चतुर्गुरु तप और काल से विशेषित ।
५९३२.अच्छंती वेगागी, किं ण्हु हु दोसे ण इत्थिगा पावे । आमोसग तरुणेहिं किं पुण पंथम्मि संका य॥ शिष्य ने पूछा- क्या अकेली स्त्री प्रतिश्रय में रहती हुई दोषों को प्राप्त नहीं होती कि जिससे भिक्षाटन आदि अकेली के लिए प्रतिषेध करते हैं ? आचार्य कहते हैं- अकेली रहने पर वहां भी दोष को प्राप्त होती है। परंतु मार्ग में अकेली स्त्री को देखकर स्तेन और तरुण अनेक दोष उत्पन्न करते हैं। अकेली साध्वी को देखकर शंका होती है । ५९३३. एगाणियाए दोसा,
साणे तरुणे तहेव पडिणीए । भिक्खऽविसोहि महव्वत,
तम्हा सबितिज्जियागमणं ॥ अकेली साध्वी भिक्षाचर्या के लिए जाती है तो ये दोष होते हैं-- कुत्ता काट सकता है, तरुण उपसर्ग करता हैं, प्रत्यनीक मारपीट कर सकता है, अनेक कारणों से भिक्षा की विशोधि नहीं रहती, महाव्रतों की विराधना होती है-इन दोषों के कारण भिक्षाचर्या में दो साध्वियां जाएं ।
५९३४. असिवादि मीससत्थे, इत्थी पुरिसे य पूतिते लिंगे । एसा उ पंथ जयणा, भाविय वसही य भिक्खा य ॥ अशिव आदि कारणों से अकेली भी होती है। ग्रामान्तर जाते समय वह स्त्रीसार्थ के साथ जाए। उसके अभाव में
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