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प्रतिसेवना के लिए प्रेरित कर दे। इस कारण से उनके लिए ऐसे अभिग्रह का वारण किया है।
५९५८. जे य दंसादओ पाणा, जे य संसप्पगा भुवि । चिट्ठस्सग्गट्टिया ता वि, सहंति जह संजया ॥ कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं- चेष्टा कायोत्सर्ग और अभिभव कायोत्सर्ग । अभिभव कायोत्सर्ग आर्यिकाओं के लिए प्रतिषिद्ध है। चेष्टा कायोत्सर्ग में स्थित आर्यिकाएं दंशमशक आदि प्राणियों के तथा जो पृथ्वी पर संचरणशीलउन्दुर, कीट आदि के उपद्रवों को मुनियों की भांति सहन करती हैं।
५९५९. वसिज्जा बंभचेरंसी, भुज्जमाणी तु कादि तु । तहावि तं न पूयंति, थेरा अयसभीरुणो ॥ कोई आर्या प्रतिसेवित होती हुई भी भावरूप से ब्रह्मचर्य में वास करती है, फिर भी अयशभीरु स्थविर मुनि उन आर्यिकाओं की प्रशंसा नहीं करते अर्थात् पूजा नहीं करते।
५९६०. तिव्वाभिग्गहसंजुत्ता,
रता ।
थाण-मोणा - Ssसणे जहा सुज्झंति जयओ, एगा ऽणेगविहारिणो ॥ ५९६१. लज्जं बंभं च तित्थं च, रक्खंतीओ तवोरता । गच्छे चेव विसुज्झंती, तहा अणसणादिहिं ॥ तीव्र अभिग्रहों में संलग्न, स्थान, मौन तथा आसनों में रत, एक अर्थात् जिनकल्पी की साधना करने वाले तथा अनेक-विहारी - स्थविरकल्प के साधक मुनि जैसे शुद्ध होते हैं, वैसे ही आर्यिकाएं लज्जा, ब्रह्मचर्य तथा तीर्थ की रक्षा करती हुई, तप में संलग्न, गच्छ में रहती हुई अनशन आदि का पालन करती हुई शुद्ध होती हैं । ५९६२. जो वि दधिणो हुज्जा, इत्थिचिंधो तु केवली ।
वसते सो वि गच्छम्मी, किमु त्थीवेदसिंधणा ॥ जो भी दग्धेन्धन - वेदमोहनीय कर्म को भस्मसात् कर देता है, जो स्त्री चिह्न से लक्षित केवली होता है, वह भी गच्छ में रहता है तो सेन्धना - स्त्रीवेद युक्त संयती गच्छ में क्यों न रहे ? उनको गच्छ में ही रहना चाहिए।
५९६३. अलायं घट्टियं ज्झाई, फुंफुगा हसहसायई ।
कोवितो वढती वाही, इत्थीवेदे वि सो गमो ॥ अलात को घुमाने से वह प्रज्वलित होता है, फुम्फुक को घट्ट करने से वे दीप्त होते हैं, व्याधि कुपित होने पर बढ़ती है, स्त्रीवेद के विषय में भी यही विकल्प है। वह भी घट्टित होने पर प्रज्वलित होता है। ५९६४.कारणमकारणम्मि य, गीयत्थम्मि य तहा अगीयम्मि । एए सव्वे वि पए, संजयपक्खे विभासिज्जा ॥
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बृहत्कल्पभाष्यम्
ये जो व्युत्सृष्टकायिक आदि पद कहे गए हैं वे कारण या अकारण में गीतार्थ तथा अगीतार्थ मुनि को सारे पद कल्पते हैं।
आकुंचणपट्टादि-पदं
नो कप्पइ निग्गंथीणं आकुंचणपट्टगं धारितए वा परिहरित्तए वा ॥
(सूत्र २४)
कप्पइ
निग्गंथाणं आकुंचणपट्टगं धारितए वा परिहरित्तए वा ॥
(सूत्र २५)
५९६५.बंभवयपालणट्ठा, तहेव पट्टाइया उ समणीणं । बिइयपदेण जईणं, पीढग फलए विवज्जित्ता ॥ जैसे ब्रह्मव्रतपालन के लिए आर्याओं को अचेलकत्व आदि नहीं कल्पता, वैसे ही ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए पट्ट आदि । (दारुक दंड पर्यन्त) नहीं कल्पते । द्वितीयपद में साधुओं को वे कल्पते हैं पर पीठ और फलक का वर्जन करना चाहिए। ये तो साधुओं को बिना अपवाद पद के भी कल्पते हैं।
५९६६.गव्वो अवाउडत्तं, अणुवधि पलिमंथु सत्थुपरिवाओ।
पट्टमजालिय दोसा, गिलाणियाए उ जयणाए ॥ पर्यस्तिकापट्ट को धारण की हुई साध्वी को देखकर लोग कहते हैं - देखो ! इसमें कितना गर्व है ? कोई अप्रावृत साध्वी पर्यस्तिका में बैठ जाती है। पर्यस्तिकापट्ट अनुपधि है, उपधि नहीं है। उपधि वह होती है जो उपकारी हो। इसके प्रत्युपेक्षण में सूत्रार्थ का परिमन्थ होता है, शास्ता का परिवाद होता है । द्वितीयपद में जो ग्लान है स्थविरा है, वह यतना पूर्वक अर्थात् जहां सागारिक न हों वहां पर्यस्तिकापट्ट धारण करे, वह जालरहित हो । जाल सदृश में शुषिर दोष होते हैं। इसी प्रकार यतियों को भी बिना कारण पर्यस्तिका करने वालों को चतुर्लघु और गर्व आदि दोष लगते हैं।
५९६७. थेरे व गिलाणे वा, सुत्तं काउमुवरिं तु पाउरणं ।
सावस्सए व वेट्ठो, पुव्वकतमसारिए वाए । सूत्रपौरुषी या अर्थपौरुषी शिष्यों को देते समय स्थविर या ग्लान वाचनाचार्य पर्यस्तिका कर ऊपर आवरण कर दे । जो आचार्य वृद्ध हों वे पूर्वकृत सावश्रय- अवष्टम्भ वाले आसन पर बैठकर एकान्त में शिष्यों को वाचना दे।
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