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जाणेज्जा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिंसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्घाइयं॥
(सूत्र ८) भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे असंथडिए वितिगिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारमाहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिंसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥
(सूत्र ९) ५७८४.अण्णगणं वच्चंतो, परिणिव्ववितो व तं गणं एंतो।
विह संथरेतरे वा, गेण्हे सामाए जोगोऽयं॥ अधिकरण करके, अनुपशांत अवस्था में, अन्य गण में जाते हुए या पुनः उसी गण में परिनिर्वापित-आते हुए मार्ग में पर्यास भोजन मिलने पर या न मिलने पर रात्री में आहार ग्रहण करे। यह योग है, संबंध है। ५७८५.संथडमसंथडे या, निव्वितिगिच्छे तहेव वितिगिच्छे।
काले दव्वे भावे, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ प्रस्तुत में चार सूत्र हैं१. संस्तृत निर्विचिकित्स ३. असंस्तृत निर्विचिकित्स २. संस्तृत विचिकित्स ४. असंस्तृत विचिकित्स।
प्रथम सूत्र में तीन प्रकार से प्रायश्चित्त की मार्गणा होती है-काल से, द्रव्य से और भाव से। ५७८६.अणुग्गय मणसंकप्पे, गवेसणे गहण भुंजणे गुरुगा। __अह संकियम्मि भुंजति, दोहि वि लहु उग्गते सुद्धो॥ अभी तक सूर्योदय नहीं हुआ है, इस मनोगत संकल्प से
बृहत्कल्पभाष्यम् जो भक्तपान की गवेषणा, ग्रहण और भोजन करता है उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा और काल से गुरु आता है। यदि शंकित मनःसंकल्प से भोजन करता है तो उसे काल और तप-दोनों से लघु चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। सूर्य उदित हो गया है-इस निश्चित संकल्प से भोजन करने वाला शुद्ध है। ५७८७.अत्थंगयसंकप्पे, गवेसणे गहणे भुंजणे गुरुगा।
अह संकियम्मि भुंजइ, दोहि वि लहुऽणत्थमिए सुद्धो॥ 'सूर्य अस्तगत हो गया है' इस संकल्प के साथ जो भक्तपान की गवेषणा, ग्रहण और भोजन करता है उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तप और काल से गुरु होता है। यदि शंकित अवस्था में भोजन करता है तो उसे चतुर्गुरु दोनों से लघु प्रायश्चित्त होता है। सूर्य अस्तमित नहीं हुआ है, इस निःसंदिग्ध चित्त से भोजन करता है वह शुद्ध है। ५७८८.उग्गयवित्ती मुत्ती, मणसंकप्पे य होंति आएसा। ___ एमेव अणत्थमिए, धाए पुण संखडी पुरतो॥
उद्गतवृत्ति-सूर्य के उदित होने पर जो वर्तन करता है अथवा उद्गतमूर्ति-सूर्य के उदित होने पर जो मूर्ति-शरीर वर्तन करता है। मनःसंकल्प के विषय में ये आदेश हैं(१) अनुदित सूर्य को भी मनःसंकल्प से उदित मानकर भोजन करने वाला दोषी नहीं होता। (२) उदित होने पर भी अनुदित मनःसंकल्प से भोजन करना सदोष है। इसी प्रकार अनस्तमित में भी मानना चाहिए। ध्रात-सुभिक्ष में संखड़ी होती है। वह दो प्रकार की है-पुरःसंखड़ी, पश्चात् संखड़ी, पूर्वाह्न में पुरःसंखड़ी और अपराह्न में पश्चात् संखड़ी होती है। यहां अनुदित रवि के समय पुरः संखड़ी और अस्तमित रवि के समय पश्चात् संखड़ी है। ५७८९.सूरे अणुग्गतम्मिं, अणुदित उदितो व होति संकप्पो।
एवं अत्थमियम्मि वि, एगतरे होति निस्संको॥ सूर्य के अनुदित होने पर अनुदित संकल्प या उदित संकल्प, उदित होने पर अनुदित अथवा उदित संकल्प होता है। इसी प्रकार अस्तमित सूर्य के विषय में भी ऐसा मनःसंकल्प होता है। अस्तमित सूर्य के विषय में भी एकतरअनस्तमित या अस्तमित निःशंक मनः संकल्प होता है। ५७९०.अणुदियमणसंकप्पे, गहण गवेसी य भुंजणे चेव।
उग्गयऽणत्थमिए या, अत्थंपत्ते वि चत्तारि॥ अनुदित मनःसंकल्प में भक्तपान की गवेषणा, ग्रहण और भोजन करना-इन तीन पदों के साथ चार भंग उचित हैंप्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और अष्टम। उद्गत मनःसंकल्प के साथ भी ये ही चार भंग हैं। अनस्तमित मनःसंकल्प तथा
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