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= बृहत्कल्पभाष्यम्
५८६८.असिवादिएहिं तु तहिं पविट्ठा,
५८७३.संसज्जिमम्मि देसे, मत्तग सुक्ख पडिलेहणा उवरिं। संसज्जिमाइं परिवज्जयंति। ___एवं ताव अणुण्हे, उण्हे कुसणं च उवरिं तु॥ भूइट्ठसंसज्जिमदव्वलंभे,
संसजिम देश में शुष्क पिंड मात्रक में लेकर गेण्हतुवाएण इमेण जुत्ता। उसकी प्रत्युपेक्षा करे और उसे प्रतिग्रह के ऊपर डाल दे। अशिव आदि कारणों से संसक्तदेश में प्रविष्ट होने पर यह अनुष्ण की विधि है। उष्ण कूर या कुसण हो वह संसजिम-संसक्त द्रव्य का परिवर्जन करते हैं। वहां यदि असंसक्त ही होता है, उसे प्रतिग्रह के सभी द्रव्यों से ऊपर संसजिम द्रव्य प्रभूततर प्राप्त होते हों तो इन उपायों से युक्त ग्रहण करे। होकर ग्रहण करें।
५८७४.गुरुमादीण व जोग्गं, एगम्मितरम्मि पेहिउं उवरिं। ५८६९.गमणाऽऽगमणे गहणे, पत्ते पडिए य होति पडिलेहा। दोसु वि संसत्तेसुं, दुल्लह पुव्वेतरं पच्छा।
अगहिय दिट्ठ विवज्जण, अह गिण्हइ जं तमावज्जे॥ गुरु आदि के योग्य एक पात्र में ग्रहण करे, दूसरे पात्र में भिक्षा के लिए गमनागमन करने, दायक के हाथ से ग्रहण संसक्त पिंड की प्रत्युपेक्षणा कर ऊपर ग्रहण करे। यदि भक्तकरने, दायक के हस्तगत पिंड को देखने, पात्र-पतित पिंड पान दोनों संसक्त हों, तो जो भक्त-पान दुर्लभ हो वह पहले का निरीक्षण करने तथा उसका प्रत्युपेक्षण करना चाहिए। ग्रहण करे और जो सुलभ हो उसको पश्चात्। यदि अगृहीत पिंड में बस आदि देखा जाए तो उसका विवर्जन ५८७५.एसा विही तु दिद्वे, कर देना चाहिए। यदि ग्रहण कर लिया जाता है तो उससे
आउट्टियगेण्हणे तु जं जत्थ। निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
अणभोगगह विगिंचण, ५८७०.पाणाइ संजमम्मि, आता मयमच्छि कंटग विसं वा।
खिप्पमविविंचति य जं जत्थ॥ मूइंग-मच्छि-विच्छुग-गोवालियमाइया उभए॥ यह विधि दृष्ट-ग्रहण की है। अप्रत्युपेक्षित संसक्त ग्रहण त्रस प्राणी की विराधना होती है यह संयमविराधना। करने पर जहां जो परितापना आदि होती है, उसका आत्मविराधना में मृतमक्षिका आदि संमिश्र भोजन करने पर प्रायश्चित्त आता है। अजानकारी में संसक्त ग्रहण करने पर रोग उत्पन्न होता है, भोजन में कंटक या विष भी हो सकता। उसकी शीघ्र ही परिष्ठापना करनी चाहिए। यदि शीघ्र है। पिपीलिका, मक्खी, बिच्छु, गोपालिक आदि जीवों को परिष्ठापना नहीं की जाती तो जब तक जिस प्राणी का भक्त के साथ खा लेने पर संयमविराधना, आत्मविराधना विनाशन होता है उसका यथायोग्य प्रायश्चित्त आता है। तथा मेधा आदि का उपघात होता है।
५८७६.सत्त पदा गम्मते, जावति कालेण तं भवे खिप्पं। ५८७१.पवयणघातिं व सिया, तं वियर्ड पिसियमट्ठजातं वा।
कीरंति व तालाओ, अडुयमविलंबितं सत्ता॥ आदाण किलेसऽयसे, दिळंतो सेट्ठिकब्बडे॥ क्षिप्र का अर्थ है उतना समय जितने समय में सात पैर गृहस्थ शत्रुभाव से विकट-मद्य, मांस तथा अर्थजात- जाया जाए। जितने काल में अद्रुत-अविलंबित सात ताल स्वर्ण आदि भी दे सकता है। इससे प्रवचन का उपघात होता किये जाते हैं उतना काल विशेष क्षिप्र कहलाता है। है। इसलिए पतित पिंड का प्रत्युपेक्षण करना चाहिए। ५८७७.तम्हा विविंचितव्वं, आसन्ने वसहि दूर जयणाए। प्रत्युपेक्षण न करने पर वह अर्थजात किसी के लिए
सागारिय उण्ह ठिए, पमज्जणा सत्तुग दवे य॥ 'आदान'-आजीविका का साधन भी बन सकता है। इसलिए प्राणीसंसक्त द्रव्य का परिष्ठापन कर देना अर्थजात का ग्रहण हो जाने पर उसके रक्षण का महान् चाहिए। यदि वसति निकट हो तो वहां परिष्ठापन कर दे। क्लेश उठाना पड़ता है, अयश होता है। यहां काष्ठश्रेष्ठी का । अथवा वसति दूर हो तो शून्यगृह आदि यतनापूर्वक परित्याग दृष्टांत है।
कर देना चाहिए। यदि सागारिक देख रहा हो और भूभाग ५८७२.तम्हा खलु दट्ठव्वो, सुक्खग्गहणं अगिण्हणे लगा। उष्ण हो, तथा मुनि वहां खड़ा-खड़ा परिष्ठापित करता है तो
आणादिणो य दोसा, विराहणा जा भणिय पुव्विं॥ प्रायश्चित्त का भागी होता है। परिष्ठापन भूमी का प्रमार्जन इसलिए निश्चितरूप से पात्र पतित पिंड को देखना करना चाहिए। सत्तू और द्रव का परिष्ठापन छाया में करना चाहिए। अन्य पात्र में शुष्ककूर का ग्रहण करना चाहिए। न चाहिए। करने पर चतुर्लघु और आज्ञाभंग आदि दोष और पूर्वकथित ५८७८.जावइ काले वसहिं, उवेति जति ताव ते ण विदंति। आत्मविराधना और संयमविराधना-दोनों होती हैं।
तं पि अणुण्हमदवं तो, गंतूणमुवस्सए एडे॥
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