________________
पांचवां उद्देशक =
जितने समय में वसति में पहुंचता है उतने समय में यदि प्राणी विनष्ट नहीं होते तो वसति में ले जाएं। वह द्रव्य अनुष्ण और अद्रव होना चाहिए। अनुष्ण और अद्रव द्रव्य उपाश्रय में ले जाकर 'एडयेत्'-परिष्ठापन कर दे। उष्ण और द्रव पदार्थ शून्यगृह में परिष्ठापित करे। यदि वसति दूर हो तो अनुष्ण भी शून्यगृह में परिष्ठापित करे। ५८७९.सुण्णघरादीणऽसती, दूरे कोण वतिअंतरीभूतो।
__उक्कुडु पमज्ज छाया, वति-कोणादीसु विक्खिरणं॥
यदि शून्यगृह न हों तो दूर एकान्त में जाकर, वृति से अन्तरित होकर एक कोने में ऊकडू बैठकर, भूमी को प्रमार्जित कर, छाया में वृति के कोने में परिष्ठापित कर दे। ५८८०.सागारिय उण्ह ठिए, अपमज्जंते य मासियं लहुगं।
वोच्छेदुड्डाहादी, सागारिय सेसए काया। सागारिक वहां हो, उष्ण प्रदेश में स्थित होकर यदि अप्रमार्जित भूमी में परिष्ठापित करता है तो लघुमास। सागारिक के देखते परिष्ठापित करने पर भक्तपान का व्यवच्छेद और उड्डाह आदि होता है। शेष अर्थात् उष्णादि वय में परिष्ठापित करने पर पृथिवी आदि काय की विराधना होती है। ५८८१.इइ ओअण सत्तुविही, सत्तू तद्दिणकतादि जा तिण्णि।
वीसुं वीसुं गहणं, चतुरादिदिणाइ एगत्थ॥ यह ओदन जो संसक्त हो, उसके परिष्ठापन की विधि कही गई है। संसक्त सक्तू के परिष्ठापन की विधि यह है। उसी दिन बने हुए सक्तू ग्रहण करे। दूसरे, तीसरे दिन बने हुए सक्तू ग्रहण करने हों तो पृथक्-पृथक् ग्रहण करने चाहिए। तत्पश्चात् चार दिन आदि में बने हुए सक्तू एकत्र ग्रहण किए जा सकते हैं। उनकी प्रत्युपेक्षणा विधि भिन्न है। ५८८२.नव पेहातो अदिद्वे, दिद्वे अण्णाओ होति नव चेव।
एवं नवगा तिण्णी, तेण परं संथरे उज्झे॥ यदि उन सक्तूओं की नौ बार प्रत्युपेक्षणा करने पर भी प्राणजातीय न दिखाई दें तो वे सक्तू खाए जा सकते हैं। यदि दिखाई दें तो पुनः नौ बार प्रत्युपेक्षा करे। फिर तीसरी बार नौ प्रत्युपेक्षा कर उन्हें खाए। यदि शुद्ध न हों तो उनका परिष्ठापन कर दे। यदि उनके बिना निर्वाह न हो तो
और प्रत्युपेक्षा तब तक करे, जब तक वे शुद्ध न हों। ५८८३.आगरमादी असती, कप्परमादीसु सत्तुए उरणी।
पिंडमलेवाडाण य, कातूण दवं तु तत्थेव॥ यदि सक्तूओं में जीव-जन्तु हो तो आकर आदि में परिष्ठापित करें। यदि आकर न हो तो कर्पर आदि में सक्तू
रखकर, चारों ओर पाल बांधकर अनाबाध प्रदेश में रख दें। जो सक्तू शुद्ध हों और अलेपकृत हों उन्हें पिंडित कर, उसी पात्र में द्रव पदार्थ लेकर उसके साथ उसे खा ले। ५८८४.आयामु संसट्टसिणोदगं वा,
गिण्हति वा णिव्वुत चाउलोदं। गिहत्थभाणेसु व पेहिऊणं,
मत्ते व सोहेत्तुवरिं छुभंति॥ कांजी यदि संसक्त हो जाए तो आयाम अवस्रावण, संसृष्टपानक-गोरस के बर्तन का धावन, निर्वृत्त उष्णोदक, चाउलोदक ग्रहण करते हैं। इनके अभाव में उसी कांजी का गृहस्थ के भाजन में प्रत्युपेक्षणा करे, उसको स्वयं के पात्र में डालकर शोधित करे, यदि असंसक्त हो तो उसे पात्र के ऊपर प्रक्षिप्त करे। ५८८५.बिइयपद अपेक्खणं तू,
गेलण्ण-ऽद्धाण-ओममादीसु। तं चेव सुक्खगहणे,
दुल्लभ दव दोसु वी जयणा॥ अपवादपद में ग्लानत्व, अध्वा, अवम आदि कारणों में पिंड का अप्रत्युपेक्षण भी विहित है। यह द्वितीय पद शुष्क ओदन के ग्रहण के विषय में मानना चाहिए। यदि द्रव पदार्थ दुर्लभ हो और वह पहले ले लिया गया हो, शुष्क के लिए दूसरा पात्र न हो तो दोनों-अप्रत्युपेक्षणा और शुष्कग्रहण के विषय में यह यतना करनी चाहिए। ५८८६.अच्चाउर सम्मूढो, वेलाऽतिक्कमति सीयलं होइ।
असढो गिण्हण गहिते, सुज्झेज्ज अपेक्खमाणो वि॥ कोई मुनि अतीव ग्लानत्व के कारण संमूढ़ है और वह जितनी वेला में प्रत्युपेक्षण करता है, उतने में वेला अतिक्रान्त हो जाती है और वह पदार्थ शीतल हो जाता है। इस अशठविशुद्धभाव से ग्रहण करता हुआ या गृहीत पिंड की प्रत्युपेक्षणा न करता हुआ भी वह शुद्ध है, उसे प्रायश्चित्त नहीं आता। ५८८७.ओमाणपेल्लितो वेलऽतिक्कमो चलिउमिच्छति भयं वा।
एवंविहे अपेहा, ओमे सतिकाल ओमाणे॥ कोई सार्थ 'अवमानप्रेरित' अर्थात् अनेक भिक्षाचरों से आकीर्ण है, जितने समय में प्रत्युपेक्षा की जाती है उतने समय में वह सार्थ वहां से चल पड़ता है। उसके पश्चात् जाने से भय बना रहता है। ऐसी स्थिति में अप्रेक्षा-प्रत्युपेक्षा के बिना भी पिंड लिया जा सकता है। अवम में प्रत्युपेक्षा करने पर 'सत्काल'–भिक्षाकाल बीत जाता है अथवा अवमानभिक्षाचरों से भर जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org