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पांचवां उद्देशक
नहीं हुआ है, इस विपर्यास में वह मुनि कुछ ग्रहण करता है। तो भी वह विशुद्ध है क्योंकि उसका परिणाम विशुद्ध है। ५८१०. समि- चिंचिणिमादीणं, पत्ता पुप्फा य णलिणिमादीणं ।
उदय -ऽत्थमणं रविणो, कहिंति विगसंत- मउलिंता ॥ सूर्य अनुद्गत या अस्तमित है - यह कैसे जाना जाता है? भाष्यकार कहते हैं- शमी, चिंचिणिका वृक्षों के पत्ते विकसित होने पर तथा नलिनी आदि के पुष्प विकसित देखकर जाना जा सकता है कि सूर्योदय हो गया है और ये सब मुकुलित है तो समझना चाहिए सूर्य अस्तंगत हो गया है, ऐसा कहा जाता है।
५८११. अब्भ-हिम-वास - महिया - महागिरी - राहु-रेणु - रयछण्णो । मूढदिसस्स व बुद्धी, चंदे गेहे व तेमिरिए ॥ आकाश में बादल हो, हिमपात होता हो, वर्षा या महिका गिर रही हो, पूर्व पश्चिम दिशा में महान् पर्वत हो, राहु द्वाटरा ग्रस्त होने पर, रेणु अथवा रजों से आकाश आच्छन्न हो-इन सारे कारणों से सूर्य का उदय और अस्त ज्ञात नहीं होता। तथा कोई विशामूक व्यक्ति पश्चिम दिशा को पूर्व दिशा मानता हुआ, सूर्य को नीचे देखकर सूर्य उदित हुआ है, ऐसा जानकर भक्तपान लेता है, खाता है और अंधकार हुआ जानकर सोचता है, मैंने सूर्य के अस्त होने पर खाया है अथवा कोई व्यक्ति तैमिरिक है, घर के भीतर सोकर उठा है, प्रदोष में चन्द्रमा को सूर्य मानकर भोजन कर लेता है, ये सारे कारण सूर्य के उदित होने या अस्तमित होने का भ्रम पैदा करते हैं।
५८१२. सुत्तं पडुच्च गहिते, णातुं इहरा उ सो ण गेण्हंतो ।
जो पुण गिण्हति णातुं, तस्सेगट्ठाणगं वड्डे ॥ जिसने सूत्र के प्रामाण्य से भक्तपान ग्रहण किया, फिर ज्ञात हुआ कि सूर्य अनुद्गत या अस्तमित हो गया था, इस स्थिति में वह सारे भक्तपान का परिष्ठापन कर दे। यदि पहले ज्ञात हो जाता तो वह ग्रहण ही नहीं करता। जो जानने के पश्चात् भी ग्रहण करता है उसके एक स्थान की वृद्धि होती है - प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है।
५८१३. सव्वस्स छड्डण विगिंचणा उ मुह - हत्थ - पादछूढस्स ।
फुसण धुवणा विसोहण, सकिं व बहुसो व णाणत्तं ॥ अनुदित या अस्तंगत जानकर जो मुंह में प्रक्षिस है, हाथ में या पात्र में है, उन सबका परिष्ठापन करना वह विवेचना है । हाथ से आमर्शन तथा धोना-कल्प करना -यह विशोधन है । अथवा एक बार परिष्ठापन, स्पर्शन, धावन करना विवेचना है और बहुत बार करना विशोधन है। यही विवेचन और विशोधन में नानात्व है।
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५८१४. नातिक्कमती आणं, धम्मं मेरं व रातिभत्तं वा । अत्तट्ठेगागी वा, सय भुंजे सेस देज्जा वी ॥ जो विवेचन और विशोधन करता है, वह आज्ञा का धर्म की मर्यादा का और रात्रीभक्तव्रत का अतिक्रमण नहीं करता। आत्मार्थी या एकाकी मुनि स्वयं खाता है, दूसरों को नहीं देता और जो अनात्मलाभी और अनेकाकी होता है, वह स्वयं भी खाता है और दूसरों को भी देता है।
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५८१५. एवं वितिगिच्छो वी, दोहि लहू णवरि ते तु तव काले। तस्स पुण हवंति लता, अट्ठ असुद्धा ण इतरातो ॥ इस प्रकार जो विचिकित्स है उसके विषय में भी यही कथन है। उसके जो तपोई प्रायश्चित्त हैं, वे तप और काल से लघु होते हैं। उसके केवल आठ अशुद्ध लताएं होती हैं, शुद्ध नहीं होतीं, क्योंकि उसका संकल्प शंकित होता है, उसमें प्रतिपक्ष का अभाव होता है। ५८१६.अणुदिय उदिओ किं नु हु, संकप्पो उभयहा अदिट्ठे उ । धरति ण व त्ति व सूरो, सो पुण नियमा चउण्हेको । आदित्य अदृष्ट होने पर यह संकल्प होता है कि क्या सूर्य उदित हो गया अथवा अभी अनुदित है ? अस्तयनवेला में भी यही संकल्प होता है कि क्या सूर्य अस्त हो गया अथवा नहीं? इन चार विकल्पों से एक में होता है सूर्य अनुदित या उदित, अस्तमित या अनस्तमित। भंग इस प्रकार होते हैं
को लेकर विचिकिसित मनः संकल्प हो तो विचिकित्सितरावेषी, विचिकित्सितग्राही विचिकित्सितभोजीये आठ भंग होते हैं इसी प्रकार अस्त को लेकर आठ भंग होते हैं। दोनों अष्टभंगियों में पहला, दूसरा, चौथा और आठवां भंग ग्राह्य हैं, शेष चार भंग अग्राह्य हैं।
५८१७. तब गेलन्न - ऽद्धाणे, तिविहो तु असंथडी बिहे तिविहो । तवऽसंथड मीसस्सा, मासादारोवणा इणमो ॥ असंस्तृत तीन प्रकार के हैं-तपस्या से क्लान्त, ग्लानत्व से असमर्थ, लंबे मार्ग में पर्याप्त न मिलने पर असमर्थ मार्ग में असंस्तृत के तीन प्रकार हैं-अध्व के प्रवेश में, अध्व के मध्य में तथा अध्व के उत्तार में । तपो असंस्तृत के मासादिक की यह आरोपणा होती है, मिश्र का अर्थ है विचिकित्सा समापन के भी मासादि की आरोपणा करनी चाहिए।
५८१८. एक्क - दुग - तिण्णि मासा, चउमासा पंचमास छम्मासा ।
सव्वे वि होंति लहुगा, एगुत्तरवड्डिया जेणं ॥ यदि संलेखनाशेष ज्ञात हो जाने पर खाता है तो एक मासिक, पांच कवल खाता है तो दुमासिक, दस कवल खाता है तो तीन मासिक, पन्द्रह कवल चार मास, बीस
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