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पांचवां उद्देशक
६०३ अस्तंगत के साथ भी ये ही चार भंग होते हैं। तीसरा, प्रथम लता-अनस्तमितसंकल्प, अनस्तमितऐषी, पांचवां, छठा और सातवां-ये भंग असंभव हैं। .
अनस्तमितग्रहण और भोजी। दूसरी लता-संकल्प, एषण ५७९१.अणुदितमणसंकप्पे,
और ग्रहण पद में शुद्ध और अन्त्यपद में अशुद्ध। गवेस-गह-भोयणम्मि पढमलता। तीसरी लता-मनःसंकल्प और एषणा में शुद्ध तथा ग्रहण बितियाए तिसु असुद्धो,
और भोजन में अशुद्ध। अन्त्य लता अर्थात् चौथी लताउग्गयभोई उ अंतिमओ॥ संकल्प पद में शुद्ध, शेष तीन पदों-गवेषण, ग्रहण और अनुदित मनःसंकल्प में अनुदितगवेषी, अनुदितग्राही और भोजन में अशुद्ध। अनुदितभोजी यह प्रथम लता है, प्रथम भंग है। दूसरी लता ५७९९.पढमाए बितियाए, ततिय चउत्थीए नवम दसमाए। में तीन पदों-संकल्प, गवेषण और ग्रहण-इन तीन पदों में ___एक्कारस बारसीए, लताए चउरो अणुग्घाता॥ अशुद्ध और अंतिम पद-उद्गत भोजीत्वरूप से शुद्ध है।
पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं ५७९२.तइयाए दो असुद्धा, गहणे भोती य दोण्णि उ विसुद्धा। और बारहवीं-इन आठ लताओं में भावों की अविशद्धि के
__संकप्पम्मि असुद्धा, तिसु सुद्धा अंतिमलया उ॥ कारण चार अनुद्घात का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
तीसरी लता में दो पद-संकल्प और गवेषण अशुद्ध होते ५८००.पंचम छ स्सत्तमिया, अट्ठमिया तेर चोइसमिया य। हैं और ग्रहण और भोजन-ये दो पद शुद्ध होते हैं। अन्त्यलता पन्नरस सोलसा वि य, लताओ एया विसुद्धाओ॥ तीन पदों में शुद्ध होती है और संकल्पपद में अशुद्ध होती है। पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, तेरहवीं, चौदहवीं और इस प्रकार अनुदित मनःसंकल्प की चार लताएं कही गई हैं। सोलहवीं-ये आठ लताएं विशुद्ध हैं। क्योंकि सर्वत्र भाव की ५७९३.उग्गयमणसंकप्पे, अणुदित गवेसी य गहण भोगी य। विशुद्धि होती है।
एमेव य बितियलता, सुद्धा आदिम्मि अंते य॥ ५८०१.दोण्ह वि कतरो गुरुओ, ५७९४.ततियलताए गवेसी, होइ असुद्धो उ सेसगा सुद्धा।
अणुग्गतऽत्थमिय/जमाणाणं। सव्वविसुद्धा उ भवे, चउत्थलतिया उदियचित्ते॥
आदेस दोण्णि काउं, प्रथम लता उद्गतमनःसंकल्प अनुदितगवेषी, अनुदित
अणुग्गए लहु गुरू इयरे॥ ग्राही और अनुदितभोजी। इसी प्रकार द्वितीय लता भी होती शिष्य ने पूछा-सूर्य के अनुद्गत होने पर या सूर्य के है। आदिपद और अन्त्यपद शुद्ध तथा मध्य दो पद अशुद्ध। अस्तमित हो जाने पर जो भोजन करता है इन दोनों में तृतीय लता में गवेषणापद अशुद्ध है। शेष तीन पद शुद्ध हैं। महादोषी कौन है? आचार्य ने कहा-इस विषयक दो आदेश चतुर्थी लता में चारों पद शुद्ध हैं। ये चारों लताएं उदित- हैं, दो मान्यताएं हैं। कोई आचार्य कहते हैं-अनुदगतभोजी से चित्तविषय वाली हैं। शुद्ध हैं।
अस्तमित भोजी गुरुतर होता है। कोई आचार्य इससे विपरीत ५७९५.अत्थंगयसंकप्पे, पढम धरेंतेसि गहण भोगी य। मानते हैं। वे कहते हैं-अस्तमितभोजी से अनुद्गतभोजी
दोसंतेसु असुद्धा, बितिया मज्झे भवे सुद्धा॥ गुरुतर होता है। आचार्य कहते हैं-अस्तमित भोजी गुरुतर ५७९६.ततिया गवेसणाए, होति विसुद्धा उ तीसु अविसुद्धा। इसलिए है कि उसके परिणाम संक्लिष्ट होते हैं। दिन में
चत्तारि वि होति पदा, चउत्थलतियाए अत्थमिते॥ भोजन कर लेने पर पुनः रात्री में भोजन करता है। उस समय अस्तंगत संकल्प में प्रथम लता में सूर्य के रहते भक्त- काल अविशुद्धयमान होता है। अनुदितभोजी सारी रात भूख पान की एषणा, ग्रहण और भोजन-सूर्य अस्तंगत हो गया है, को सहन कर क्लान्त होकर भोजन करता है। वह काल इस बुद्धि से करता है। द्वितीय लता में दो पद-आदि और विशुद्ध्यमान होता है। अतः वह लघुतर है। दूसरे कहते अन्त-अशुद्ध हैं, मध्यवर्ती दो पद शुद्ध हैं। तीसरी लता में हैं-अस्तमितभोजी से अनुदितभोजी गुरुतर होता है। क्योंकि गवेषणा में शुद्ध है, शेष तीन पद अशुद्ध हैं। चौथी लता में वह सारी रात सहनकर थोड़े समय की भी प्रतीक्षा नहीं कर अस्तमित विषय के कारण चारों पद अविशुद्ध होते हैं। पाता। इसलिए वह संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है। दूसरा ५७९७.अणत्थंगयसंकप्पे, पढमा एसी य गहण भोगी य। सोचता है-मुझे लंबे समय तक सहना पड़ेगा, अतः वह खा
मण एसि गहण सुद्धा, बितिया अंतम्मि अविसुद्धा॥ लेता है, वह लघुतर है। यह दोनों आदेश सूत्रों की बात है। ५७९८.मण एसणाए सुद्धा, ततिया गह-भोयणेसु अविसुद्धा। उसका स्थितिपक्ष यह है-अनुद्गत सूर्य में प्रतिसमय
संकप्पे नवरि सुद्धा, तिसु वि असुद्धा उ अंतिमिया॥ विशुद्ध्यमान काल होता है अतः अनुदितभोजी लघुतर होता
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