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पांचवां उद्देशक = दिन वहीं दो शरट परस्पर झगड़ने लगे। यह देखकर वनदेवता ने सबको सचेत करते हुए कहा___ 'हे हाथियो! हे सभी जलचर प्राणियो! तथा सभी त्रस
और स्थावर जीवो! सुनो जो मैं कहता हूं। जहां तालाब के पास शरट लड़ रहे हों तो तुम जान लो कि वहां विनाश होने वाला है।'
इतना सुनने पर भी उन प्राणियों ने सोचा-ये शरट हमारा क्या बिगाड़ लेंगे? इतने में दोनों शरट लड़ते-लड़ते विश्राम कर रहे हाथियों के निकट आ गए। एक शरट, बिल समझकर, हाथी के सूंड में घुस गया। दूसरा भी उसके पीछे उसी सूंड में घुस गया। भीतर शिरकपाल में जाकर वहां लड़ने लगे। हाथी को बहुत कष्ट होने लगा। वह आकुल- व्याकुल होकर उठा और उस वनखंड को चूर-चूर करता हुआ, उस तालाब में प्रविष्ट हो गया। वनखंड में अनेक स्थलचर प्राणी नष्ट हो गए। तालाब की पाल तोड़ डाली। सभी जलचर प्राणी विनष्ट हो गए।
इसलिए कलह छोटा हो या बड़ा, उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उसके तत्काल उपशमन का प्रयत्न करना चाहिए।
अधिकरण के ये दोष हैं-ताप, भेद, अकीर्ति, ज्ञान-दर्शन और चारित्र की हानि, साधुओं में प्रद्वेष और संसार का प्रवर्धन।
ताप दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त। अतिभणित प्रशस्त ताप है। व्यक्ति सोचता है-मैंने उसे बहुत ज्यादा कह डाला। अभणित अप्रशस्त ताप है। व्यक्ति सोचता है मैंने उसे बहुत कम कहा। मुझे उसके ये-ये दोष उद्घाटित करने थे। भेद का अर्थ है-कलह करके स्वयं का जीवितभेद या चारित्रभेद कर देना। लोग कहने लगते हैं-इसके रूप के सदृश शील नहीं है। अथवा इसने कुछ लज्जनीय कार्य किया है, इसलिए यह म्लानवदन दिख रहा है। इस प्रकार उसका अयश होता है।
आक्रुष्ट या ताडित होने पर साधुओं का परस्पर पक्षग्रहण करने पर कलह होता है और उससे गणभेद हो जाता है। कोई एक पक्ष राजकुल में जाकर इस कलह की सूचना देता है अथवा सूचक-राजपुरुषों द्वारा राजा को ज्ञापित करने पर, ग्रहण-आकर्षण आदि दोष होते हैं।
कलह के समाप्त हो जाने पर भी जो पढ़ने से विमुख होता है, उसके ज्ञान की हानि होती है। साधु प्रद्वेष से साधर्मिक मुनियों का वात्सल्य नहीं रहता। इससे दर्शन की हानि होती
है। जैसे-जैसे कषायों की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे चारित्र की हानि होती है।
कर्कश अधिकरण हो जाने पर दोनों को उपशांत करना चाहिए। पार्श्वस्थित मुनि दोनों का अपसारण करे। गुरु उनको कहे-कलह का उपशमन कर ध्यान करो, स्वाध्याय करो। अनुपशांत के न ध्यान होता है और न स्वाध्याय। तुम द्रमक की भांति कनकरस को शाकपत्रों के लिए क्यों फेंक रहे हो?
(एक परिव्राजक ने दीन-हीन द्रमक से पूछा-इतने चिंतातुर क्यों हो? उसने कहा-मैं दरिद्रता से अभिभूत हूं। 'परिव्राजक बोला यदि तुम मेरे कथनानुसार चलोगे, करोगे तो मैं तुम्हें वैभवशाली बना दूंगा। उसने परिव्राजक की बात स्वीकार कर ली। दोनों चले। एक निकुंज में प्रविष्ट होकर परिव्राजक ने कहा-यह कनकरस है। इसके ग्रहण का उपचार-विधि यह है कि जो उसे ग्रहण करता है वह शीत, आतप, परिश्रम, क्षुधा, पिपासा सहन करता हुआ, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ, अचित्त कंदमूल का भोजन करता हुआ, कषायों का उपशमन कर, शमीवृक्ष के पुटकों में इसे ग्रहण करे। यह इसको ग्रहण करने की विधि है।' द्रमक ने वैसे ही किया। एक तुंबक को कनकरस से भरकर, दोनों वहां से चले। परिव्राजक ने कहा-यह बहुमूल्य रस है। इसको क्रोधवश फेंकना नहीं हैं।' चलते-चलते परिव्राजक बार-बार कहता-तुम मेरे प्रभाव से धनी बन जाओगे। द्रमक ने एक-दो बार सुना। फिर रुष्ट होकर बोला-तुम्हारे प्रभाव से मैं धनी बनूं, यह मुझे इष्ट नहीं है। उसने उस कनकरस को फेंक दिया।' तब परिव्राजक बोला-अरे दुरात्मन् ! यह तुमने क्या किया ? कषाय के कारण इतने बड़े लाभ से हाथ धो बैठे?)
परिव्राजक ने कहा-जो तुमने तप, नियम, ब्रह्मचर्य से अर्जित गुण रूप कनकरस को तप आदि रूप शमीवृक्ष के पत्रपुटकों में एकत्रित किया था, उसको फेंक दिया। अब तुम जान पाओगे कि तुमने शाकवृक्ष के पत्रतुल्य कषाय के कारण स्वयं की आत्मा को गुणों से रिक्त कर डाला है।
जो चारित्र देशोनपूर्वकोटी वर्षों में अर्जित किया है, उसको भी कषायितमात्र व्यक्ति एक मुहूर्त में उसे विनष्ट कर देता है।
दो मुनि अधिकरण कर रहे हैं। आचार्य एक को कुछ नहीं कहते, एक को कलह करने से निवारित करते हैं। इस प्रवृत्ति से आचार्य को लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। आचार्य शीतघर के समान होते हैं। वे राग-द्वेष से विप्रमुक्त होते हैं।
आचार्य अमुक मुनि को कलह से निवारित करता है।
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