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चौथा उद्देशक
= ५८५ ५६४७.उवलजलेण तु पुव्वं, अक्कंत-निरच्चएण गंतव्वं। आक्रान्त-स्थिर शरीर-निरत्यय, सान्तर बस वाले पथ से
तस्सऽसति अणक्वंते, णिरच्चएणं तु गंतव्वं॥ जाना चाहिए। ___ चार प्रकार के नोस्थल में से सबसे पहले उपलजल वाले ५६५२.तेऊ-वाउविहूणा, एवं सेसा वि सव्वसंजोगा। मार्ग से जाना चाहिए। उसमें कर्दम नहीं होता। उसमें भी जो
उदगस्स उ कायव्वा, जेणऽहिगारो इहं उदए। आक्रान्त-क्षुण्ण हो तथा निरत्यय-निष्प्रत्यपाय हो, उससे तेजस्काय और वायुकाय में गमन नहीं होता अतः जाना चाहिए। उसके अभाव में अनाक्रान्त और निरत्यय से तेजोवायु विहीन शेष सभी संयोग करने चाहिए। अप्काय का भी गमन किया जा सकता है।
वनस्पति और त्रस प्राणियों के साथ भंग होते हैं। यहां उदक ५६४८.एमेव सेसएसु वि, सिगतजलादीहिं होति संजोगा। का अधिकार है। शिष्य प्रश्न करता है-वनस्पति वाले मार्ग
पंक महुसित्थ लत्तग, खुलऽद्धजंघा य जंघा य॥ से जाना चाहिए या त्रस प्राणियों वाले मार्ग से? सूरी कहते इसी प्रकार ही सिकताजल आदि शेष पदों में आक्रान्त- हैं-सान्तर त्रस वाले मार्ग से, वनस्पतिवाले मार्ग से नहीं अनाक्रान्त आदि संयोग होते हैं। पंकजल बहुत प्रत्युपाय क्योंकि वहां नियमतः त्रस प्राणी होते हैं।' वाला होता है अतः उपलजल आदि के अभाव में उससे ५६५३.एरवइ जत्थ चक्किय, तारिसए न उवहम्मती खेत्तं। जाया जाता है। उसमें भी पहले मधुसिक्थाकृतिपंक अर्थात्
पडिसिद्धं उत्तरणं, पुण्णासति खेत्तऽणुण्णायं। केवल पादतल में लगने वाला पंक, उससे, उसके अभाव में ऐरावती नदी, जो कुणाला नगर में बहती है, उसमें उतरा अलक्तकमात्र वाले पंक से, फिर खुलकमात्र, फिर जा सकता है क्योंकि वह अर्द्धयोजन विस्तीर्ण और जंघार्द्ध अर्द्धजंघामात्र, फिर जंघामात्र-जानुप्रमाण वाले पंक-पथ से गहरी है। उसमें उतर कर भिक्षा के लिए जाने पर तीन उदक गमन करे।
संघट्टन होते हैं। जाने-आने में छह। वर्षा में सात, जाने-आने ५६४९.अहोरुतमित्तातो, जो खलु उवरिं तु कद्दमो होति।। में चौदह। इस प्रकार के उदक संघट्टन से क्षेत्र का उपहनन
कंटादिजढो वि य सो, अत्थाहजलं व सावायं॥ नहीं होता। इससे अधिक संघट्टन वाली नदी में उतरना जानुप्रमाण से जो ऊपरी पंक हो, वह कर्दम, कंटक आदि । प्रतिषिद्ध है। मासकल्प या वर्षावास पूर्ण होने पर यदि अपाय से वर्जित होने पर भी अथाह जलवाला होने के कारण अनुत्तीर्ण मुनियों के लिए अपर मासकल्पयोग्य क्षेत्र हो तो अपाय सहित ही मानना चाहिए।
नदी में नहीं उतरना चाहिए। यदि क्षेत्र न हो तो उनके लिए ५६५०.जत्थ अचित्ता पुढवी, तहियं आउ-तरुजीवसंजोगा। उतरना अनुज्ञात है।
जोणिपरित्त-थिरेहि य, अक्कंत-णिरच्चएहिं च॥ ५६५४.सत्त उ वासासु भवे, दगघट्टा तिन्नि होति उडुबद्धे। जहां पृथ्वी अचित्त हो वहां अप्काय जीवों का तथा
जे तु ण हणंति खेत्तं, भिक्खायरियं व न हणंति॥ वनस्पतिकाय जीवों का संयोग-भंग करना चाहिए। परीत्त- वर्षा ऋतु में सात और ऋतुबद्ध में तीन उदक संघट्टन योनिकस्थिरसंहनन, आक्रान्त तथा निरत्यय-निष्प्रत्यपाय- होते हैं। इतने से क्षेत्र और भिक्षाचर्या का उपहनन नहीं होता। इन चारों के परस्पर भंग करने चाहिए। वे सोलह होते हैं। ५६५५.जह कारणम्मि पुण्णे, अंतो तह कारणम्मि असिवादी। जैसे-प्रत्येकयोनिक-स्थिर, आक्रान्त, निष्प्रत्यपाय-यह
उवहिस्स गहण लिंपण, णावोयग तं पि जतणाए। पहला भंग है।
___ कारण के पूर्ण होने पर अर्थात् मासकल्प और वर्षावास ५६५१.एमेव य संजोगा, उदगस्स चउब्विहेहिं तु तसेहिं। की अवधि पूर्ण होने पर, अपरक्षेत्र के अभाव में नदी-उत्तरण
अक्कंत-थिरसरीरे-णिरच्चएहिं तु गंतव्वं॥ विहित है तथा एकमास के अन्दर यदि अशिव आदि हो, इसी प्रकार चार प्रकार के त्रस जीवों के साथ उपधि के ग्रहण के लिए अथवा लेप को लाने के लिए नदी में आक्रान्त आदि चार पदों के साथ उदक के संयोग- उत्तरण किया जा सकता है। नौका से नदी पार करनी हो तो भंग करने चाहिए। जैसे-आक्रान्त, स्थिर, निष्प्रत्यपाय- यतनापूर्वक संतरण करे। यह पहला भंग है। इस प्रकार तीन पदों से आठ भंग ५६५६.नाव थल लेवहेट्ठा, लेवो वा उवरि एव लेवस्स। होते हैं। इनको चारों प्रकार के त्रस जीवों के साथ दोण्णी दिवड्डमक्कं, अद्धं णावाए परिहाती॥ संयोग करने से ३२ भंग हो जाते हैं। सान्तर-निरन्तर के यदि नौका उत्तरणस्थान से दो योजन पथ से जाया जाए तो साथ करने से ६४ भंग होते हैं। इन भंगों में से जो उससे जाए, नौका में आरूढ़ न हो। लेप के नीचे उदक के १. वणे वि नियमा तसा अत्थि-निशीथचूर्णि।
फरा
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