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चौथा उद्देशक
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आयरिय-उवज्झाए इच्छेज्जा अण्णं
दोनों-गणावच्छेदिक और आचार्य-उपाध्याय यदि दो के आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए, नो से
लिए अर्थात् ज्ञान, दर्शन के लिए जाते हों तो वे अपने
स्वगण का निक्षेपण संविग्न आचार्य के पास करे। यदि आयरिय-उवज्झायत्तं कप्पइ
स्वगण अनुत्साहित होता है तो स्वगण को साथ लेकर अणिक्खिवेत्ता अण्णं आयरिय-उवज्झायं
जाते हैं। वहां उसका निक्षेपण नहीं करते, क्योंकि यह उद्दिसावेत्तए; कप्पइ से आयरिय
आशंका रहती है कि वहां शिष्यों को छोड़ने से वे कहीं उवज्झायत्तं निक्खिवेत्ता अण्णं आयरिय
नष्ट न हो जाएं। उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। णो से कप्पइ ५४९४.वत्तम्मि जो गमो खलु, अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव
गणवच्छे सो गमो उ आयरिए। गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरिय
निक्खिवणे तम्मि चत्ता,
जमुद्दिसे तम्मि ते पच्छा। उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइ से
जो विधि उभय व्यक्त के लिए कही गई है वही आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव
गणावच्छेदक और आचार्य के लिए जाननी चाहिए। असंविग्न गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरिय- के पास निक्षेपण करने से वे शिष्य परित्यक्त हो जाते हैं। उवज्झायं उहिसावेत्तए। ते य से अतः जिस आचार्य को वह गणावच्छेदिक तथा आचार्य वितरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं आयरिय
उद्दिष्ट करते हैं, उनके पास ही अपने शिष्यों को भी पश्चात् उवज्झायं उद्दिसावेत्तए, ते य से नो
उद्दिष्ट कर देते हैं।
५४९५.जह अप्पगं तहा ते, तेण पहुप्पंते ते ण घेत्तव्वा। वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं
अपहप्पंते गिण्हइ, संघाडं मुत्तु सव्वे वा॥ आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। नो से
जैसे स्वयं को वैसे ही उन साधुओं को भी कहते हैं। यदि कप्पइ तेसिं कारणं अदीवेत्ता अण्णं
आचार्य के पास पर्याप्त साधु हों तो उन साधुओं को ग्रहण न आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइ करे। यदि पर्याप्त साधु न हों तो साधुओं का एक संघाटक से तेसिं कारणं दीवेत्ता अण्णं आयरिय- उसको दे दें और शेष अपने पास रख लें। यदि सहायक उवज्झायं उदिसावेत्तए॥
साधु हो ही नहीं तो सबको ग्रहण कर ले। (सूत्र २४)
५४९६.सहु असहुस्स वि तेण वि, वेयावच्चाइ सव्व कायव्वं ।
ते तेसि अणाएसा, वावारेउं न कप्पंति॥ ५४९२.तीसु वि दीवियकज्जा,
उस प्रतीच्छक आचार्य को भी उस असहिष्णु या विसज्जिता जइ य तत्थ तं णत्थि।। सहिष्णु आचार्य का वैयावृत्य आदि सभी करना चाहिए। उन णिक्खिविय वयंति दुवे,
साधुओं को भी बिना आचार्य के आदेश के व्याप्त नहीं भिक्खू किं दाणि णिक्खिवतू॥ किया जा सकता। तीनों-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिए गुरु को अपना प्रयोजन निवेदित कर, उनके द्वारा विसर्जित होने पर उस
वीसुंभवण-पदं गण में जाते हैं जहां अवसन्नता आदि न हो। गणावच्छेदिक तथा आचार्य-उपाध्याय-ये दोनों जब ज्ञान आदि के लिए
भिक्खू य राओ वा वियाले वा आहच्च जाते हैं तो अपना गणावच्छेदिकत्व तथा आचार्य- वीसुंभेज्जा, तं च सरीरगं केइ उपाध्यायत्व को निक्षिप्त कर छोड़कर जाते हैं। भिक्षु इस वेयावच्चकरे इच्छेज्जा एगंते बहुफासुए समय क्या निक्षिप्त करे? गण के अभाव में उसका कुछ भी
पएसे परिट्ठवेत्तए, अत्थि या इत्थ केइ निक्षेपणीय नहीं होता।
सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते ५४९३.दुण्हऽट्ठाए दुण्ह वि, निक्खिवणं होइ उज्जमतेसु। सीअंतेसु अ सगणो, वच्चइ मा ते विणासिज्जा।
परिहरणारिहे, कप्पइ से सागारियकर्ड
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