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बृहत्कल्पभाष्यम्
सुएण पट्टविए आइयव्वे सिया, से य सुएण नो पट्टविए नो आइयव्वे सिया, से य सुएण पट्टविज्जमाणे नो आइयइ, से निज्जूहियव्वे सिया॥
(सूत्र २६)
५७६ गए थे तो अब मेरे घर में लाकर क्यों रख रहे हो? यह तुम्हारा दुगुना अपराध है। भगवन्! मेरा यह घर पाणचांडालों का घर नहीं है कि मृतक का उपकरण यहां लाकर रख दो। ५५६४.किमियं सिम्मि गुरू, पुरतो तस्सेव णिच्छुभति तं तू।
__ अविजाणताण कय, अम्ह वि अण्णे वि णं बेति॥
आचार्य ने पूछा-यह क्या वृत्तान्त है? शेष साधुओं ने गुरु से कहा-अमुक साधु बिना पूछे गृहस्थ के घर से वहनकाष्ठ ले आया। तब गुरु ने शय्यातर के तथा अन्य साधुओं के समक्ष उस मुनि की भर्त्सना कर गण से निकाल देते हैं। अन्य साध भी शय्यातर से कहते हैं हमें ज्ञात किए बिना उस साधु ने ऐसा किया, अन्यथा हम उसे वैसा करने नहीं देते। ५५६५.वारेति अणिच्छुभणं, इहरा अण्णाए ठाति वसहीए।
मम णीतो णिच्छुभई, कइतव कलहेण वा बितिओ॥ सागारिक गुरु को निवेदन करता है, इस मुनि को गण से निष्काशित न करें, सागारिक के अवारित करने पर वह अन्य वसति में रहता है। कोई दूसरा मुनि कपटपूर्वक कहता है, मेरे निजक को निष्काशित करे तो मैं भी चला जाऊंगा। सागारिक के साथ जो कलह करता है, वह भी निष्काशित कर दिया जाता है। वह निष्काशित होने वालों में द्वितीय होता है।
अहिगरण-पदं
भिक्खू य अहिगरणं कठ्ठ तं अहिगरणं अविओसवेत्ता नो से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामाणुगाम वा दूइज्जित्तए, गणाओ वा गणं संकमित्तए, वासावासं वा वत्थए। जत्थेव अप्पणो आयरिय-उवज्झायं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं तस्संतिए आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुटेज्जा आहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। सेय
५५६६.केण कयं कीस कयं, णिच्छुब्भऊ एस किं इहाणेती।
एमादि गिहीतुदितो, करेज्ज कलहं असहमाणो॥ गृहस्थ उस मुनि को कहता है-किस मुनि ने वहनकाष्ठ को यहां लाने का आयास किया? यहां क्यों ले आया? यहां क्यों लाता है ? इसको निष्काशित करो। इस प्रकार कहने पर वह मुनि उसको सहन न करते हुए गृहस्थ के साथ कलह करता है। इसलिए प्रस्तुत अधिकरण सूत्र का प्रारंभ हुआ है। ५५६७.अचियत्तकुलपवेसे, अतिभूमि अणेसणिज्जपडिसेहे।
अवहारऽमंगलुत्तर, सभावअचियत्त मिच्छत्ते॥ अधिकरण क्यों होता है के उत्तर में कहा गयाअप्रीतिकर कुल में प्रवेश करने पर, अतिभूमी-निषिद्धभूमी में जाने पर, अनेषणीय का प्रतिषेध करने पर, शैक्ष अथवा सज्ञातक का अपहरण करने पर, यात्रा में प्रस्थित गृहस्थ द्वारा साधु के दर्शन को अमंगल मानने के कारण, प्रत्युत्तर देने में असमर्थ होने पर, स्वभावतः किसी साधु को अचियत्त-अनिष्ट करते हुए देख कर, अभिगृहमिथ्यादृष्टि के मन में साधु को देखकर अधिकरण हो सकता है। ५५६८.पडिसेधे पडिसेधो, भिक्ख वियारे विहार गामे वा।
दोसा मा होज्ज बहू, तम्हा आलोयणा सोधी। भगवान् ने यह प्रतिषेध किया है कि साधु अधिकरण न करे। इस प्रकार के प्रतिषेध में पुनः यह प्रतिषेध किया जाता है कि जब साधु किसी गृहस्थ के साथ अधिकरण कर ले तो वह उसका उपशमन किए बिना भिक्षा के लिए न जाए, विचारभूमी और विहारभूमी में न जाए, ग्रामानुग्राम विहार न करे, इसमें अनेक दोष होते हैं। इसलिए गृहस्थ के साथ अधिकरण का उपशमन कर गुरु के पास आलोचना करे और शोधि-प्रायश्चित्त ले। ५५६९.अहिगरण गिहत्थेहिं, ओसार विकड्ढणा य आगमणं।
आलोयण पत्थवणं, अपेसणे होंति चउलहुगा। गृहस्थों के साथ अधिकरण करने वाले साधु का दूसरा मुनि अपसरण करे-दोनों को अलग-थलग कर दे। भुजा पकड़कर उसे दूर ले जाए। उसे लेकर उपाश्रय में आकर गुरु
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