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बृहत्कल्पभाष्यम् ५४४१.जहियं एसणदोसा, पुरकम्माई ण तत्थ गंतव्यं। वह एकाकी आचार्य को छोड़कर आया है। अथवा आचार्य
उदगपउरो व देसो, जहिं व चरिगाइसंकिण्णो॥ के पास जो साधु हैं वे अपरिणत हैं, अथवा आचार्य अल्पाधार जिस देश में पुरःकर्म आदि एषणा दोषों का प्रसंग हो वहां वाले हैं, आचार्य स्थविर हैं, आचार्य ग्लान या बहुरोगी हैं, नहीं जाना चाहिए। जो देश जलप्रचुर हो, जैसे-सिंधु देश शिष्य मंदधर्मा हैं। वह शिष्य गुरु से कलह कर आया है। आदि वहां तथा जिस देश में चरिकाएं अर्थात् परिवाजिकाएं, ५४४७.एयारिसं विओसज्ज, विप्पवासो ण कप्पई। कापलिकी संन्यासिनियां आदि अधिक हों, वहां नहीं जाना सीस-पडिच्छा-ऽऽयरिए, पायच्छित्तं विहिज्जई। चाहिए। उनसे आकीर्ण देश का वर्जन करना चाहिए। ___ इस प्रकार के आचार्य का व्युत्सर्ग कर विप्रवास-गमन ५४४२.असिवाईहिं गता पुण, तक्कज्जसमाणिया तओ णिति। करना नहीं कल्पता। इसमें शिष्य, प्रतीच्छक और आचार्य
आयरियमणिते पुण, आपुच्छिउ अप्पणा णिति॥ तीनों को प्रायश्चित्त आता है। यदि उन देशों में अशिव आदि कारणों से साधु गए हुए ५४४८.बिइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे। हों तो कार्य की समाप्ति हो जाने पर वहां से लौट आते हैं। नाऊण तस्स भावं, अप्पणो भावं अणापुच्छा॥ यदि आचार्य वहां से आना न चाहें तो शिष्य उन्हें पूछकर ___इसका द्वितीयपद यह है-संविग्न या असंविग्न आचार्य के स्वयं लौट आते हैं।
भावों को जानकर तथा अपने भावों का पर्यालोचन कर ५४४३.दो मासे एसणाए, इत्थिं वज्जेज्ज अट्ठ दिवसाई। आगाढ़कारण में भी आचार्य को बिना पूछे ही यहां से प्रस्थान
गच्छम्मि होइ पक्खो , आयसमुत्थेगदिवसं तु॥ कर दे। जहां एषणा की शुद्धि न होती हो, वहां यतनापूर्वक ५४४९.सेज्जायरकप्पट्ठी, चरित्तठवणाए अभिगया खरिया। अनेषणीय भी ग्रहण करता हुआ, गुरु को पूछकर, दो मास सारूविओ गिहत्थो, सो वि उवाएण हायव्वो॥ तक प्रतीक्षा करे। जहां शय्यातरी आदि स्त्री का उपसर्ग हो, आचार्य ने शय्यातर की बेटी में चारित्र की स्थापना कर वहां स्वयं को दृढ रखते हुए, गुरु को पूछकर आठ दिन के दी अर्थात् वे उसकी प्रतिसेवना करने लगे। तदनन्तर पश्चात् उस क्षेत्र को छोड़ दे। जहां गच्छ दुःख पा रहा है, व्यक्षरिका कोई दासी या जीवादि के ज्ञानवाली कोई श्राविका वहां एक पक्ष तक गच्छ की पूछताछ कर जाना चाहिए। में आचार्य अध्युपपन्न हो गए। अतः वे सारूपिक' सिद्धपुत्रक स्वयं के आत्मसमुत्थ दोष (स्त्री संबंधी) में एक दिन पूछकर (गृहस्थ) हो जाते हैं। अतः उनका उपाय से परिहार करना जाता है।
चाहिए। ५४४४.सेज्जायरिमाइ सएज्झए व आउत्थ दोस उभए वा। आपुच्छइ सन्निहियं, सण्णाइगतं व तत्तो उ॥
गणावच्छेइए य गणाओ अवक्कम्म यदि स्वयं शय्यातरी आदि तथा पड़ौसी की स्त्री में
इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं अध्युपपन्न हो या परस्पर अध्युपपन्न हों तो, यदि आचार्य
विहरित्तए, नो कप्पइ गणावच्छेइयस्स सन्निहित हों तो पूछकर जाए। यदि संज्ञाभूमि आदि में गए हों
गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं तो आचार्य को निवेदन करने के लिए मुनियों को कहकर गमन कर दे।
उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ ५४४५.एयविहिमागयं तू, पडिच्छ अपडिच्छणे भवे लहुगा। गणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं
अहवा इमेहिं आगय, एगागि(दि) पडिच्छणे गुरुगा॥ निक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं इस विधि से आए हुए शिष्य को स्वीकार करे। स्वीकार विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। इस एक या अनेक
आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं कारणों से आए हुए को स्वीकार करने पर चतुर्गुरु का
गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से प्रायश्चित्त है।
आपुच्छित्ता ५४४६.एगे अपरिणए या, अप्पाहारे य थेरए।
आयरियं वा जाव गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुडे।
गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं १. सारूपिक-जिसका शिर मुंडित हो, जो सफेद वस्त्र पहनता हो, कच्छा नहीं बांधने वाला, अभार्याक, भिक्षा के लिए घूमता हो। सिद्धपुत्रक-मुंड,
शिखा रखने वाला, सभार्याक। (वृ. पृ. १४४४)
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