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-बृहत्कल्पभाष्यम्
५६४ ५४५३.संभोगो वि हु तिहिं कारणेहिं नाणट्ठ दसण चरित्ते।
संकमणे चउभंगो, पढमो गच्छम्मि सीयंते॥ संभोग (एक मंडली में भोजन करना) भी तीन कारणों से होता है-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। गण से संक्रमण की विधि पूर्वोक्त ही है। चारित्र के लिए उपसंपन्न की चतुर्भंगी होती है
१. गच्छ अनुत्साहित होता है, आचार्य नहीं। २. आचार्य अनुत्साहित होता है, गच्छ नहीं। ३. दोनों अनुत्साहित होते हैं। ४. दोनों अनुत्साहित नहीं होते।
(यहां चरण-करण की क्रियाओं में अनुत्साहित होना है।) यहां प्रथम भंग गच्छ अनुत्साहित होता है, यह मानना चाहिए। ५४५४.पडिलेह दियतुअट्टण,
निक्खिव आदाण विणय सज्झाए। आलोग-ठवण-भत्तट्ठ-भास
पडल-सेज्जातराईसु ॥ गच्छ के साधु प्रत्युपेक्षण विधिपूर्वक तथा काल में नहीं करते, बिना कारण दिन में सोते हैं, दंड आदि लेने-रखने में प्रत्युपेक्षण नहीं करते, विनय और स्वाध्याय नहीं करते, सात प्रकार के आलोक का प्रयोग (ओघनि. गाथा ४६३) नहीं करते, स्थापना कुलों की स्थापना नहीं करते, भक्तार्थ-मंडली में भोजन नहीं करते, सावध भाषा बोलते हैं, पटल में लाया हुआ खाते हैं, शय्यातर का पिंड खाते हैं, उद्गम आदि अशुद्ध पिंड का भोग करते हैं। ५४५५.चोयावेइ य गुरुणा, विसीयमाणं गणं सयं वा वि। ___ आयरियं सीयंतं, सयं गणेणं च चोयावे॥
गण यदि चारित्र की क्रियाओं में विषादग्रस्त होता है तो गुरु उसको प्रेरणा देते हैं अथवा स्वयं गच्छ प्रेरित हो जाता है। आचार्य यदि विषाद पाते हैं तो गच्छ अथवा स्वयं की प्रेरणा से विषाद मिट जाता है। यह पहले तथा दूसरे भंग की बात है। ५४५६.दुन्नि वि विसीयमाणे, सयं व जे वा तहिं न सीयंति।
ठाणं ठाणाऽऽसज्ज उ, अणुलोमाईहिं चोएति॥ तीसरे भंग के अनुसार जहां गच्छ और आचार्य-दोनों सामाचारी पालन में अनुत्साहित होते हैं, वहां स्वयं प्रेरित होते हैं अथवा जो सामाचारी की पालना करते हैं, उनसे प्रेरित होते हैं। नोदना-योग्य पात्र को पाकर अनुलोम आदि योग्य वचनों से नोदना करते हैं।
५४५७.भणमाणे भणाविंते, अयाणमाणम्मि पक्खो उक्कोसो।
लज्जाए पंच तिन्नि व, तुह किं ति व परिणय विवेगो॥ गच्छ या आचार्य को अथवा दोनों को अनुत्साहित देखकर स्वयं कहता हुआ या अन्य साधुओं के द्वारा कहलाता हुआ वहां रहता है। जहां यह नहीं जानता कि ये प्रेरित किए जाने पर भी उद्यम नहीं करेंगे, वहां उत्कृष्टतः एक पक्ष रहे। गुरु को अनुत्साहित देखकर लज्जा या गौरव से जानता हुआ भी परंच या तीन दिन तक कुछ भी न कहने पर भी शुद्ध है। यदि गुरु या गच्छ कहे कि तुम्हें क्या? हम अनुत्साहित हैं तो हम उसका फल भोगेंगे। उनका भाव इस प्रकार परिणत होने पर उनका विवेकपरित्याग कर देना चाहिए। ५४५८.संविग्गविहाराओ, संविग्गा दुन्नि एज्ज अन्नयरे।
आलोइयम्मि सुद्धो, तिविहोवहिमग्गणा नवरिं॥ संविग्नविहारी गच्छ से दो संविग्न मुनि-गीतार्थ और अगीतार्थ विलग हो जाते हैं और दोनों में से कोई एक मुनि पुनः गच्छ में आता है तो जिस दिन से वह उस गच्छ से विलग हुआ हो, उस दिन से सारी आलोचना करता है तो वह शुद्ध है। उस समय त्रिविध उपधि की मार्गणा करनी चाहिए। ५४५९.गीयमगीतो गीते, अप्पडिबद्धे न होइ उवघातो।
अविगीयस्स वि एवं, जेण सुता ओहनिज्जुत्ती॥ वह संविग्न मुनि गीतार्थ या अगीतार्थ हो सकता है। यदि गीतार्थ मुनि वजिका आदि में अप्रतिबद्ध होकर आया है तो उसके न उपधि का उपघात होता है और न प्रायश्चित्त आता है। जिस अगीतार्थ ने ओघनियुक्ति सुनी है, उसके लिए भी यही विधि है। ५४६०.गीयाण विमिस्साण व, दुण्ह वयंताण वइयमाईसु।
पडिबज्झंताणं पि हु, उवहि ण हम्मे ण वाऽऽरुवणा॥ गीतार्थ और गीतार्थ विमिश्र-दोनों जाते हुए वजिका आदि में प्रतिबद्ध होने पर भी उनकी उपधि का हनन नहीं किया जाता तथा उनको आरोपणा प्रायश्चित्त भी नहीं आता। ५४६१.आगंतुमहागडयं, वत्थव्वअहाकडस्स असईए।
मेलिंति मज्झिमेहिं, मा गारवकारणमगीए॥ गीतार्थ या अगीतार्थ के तीन प्रकार की उपधि होती हैयथाकृत, अल्पपरिकर्मा और सपरिकर्मा। वहां वास्तव्य मुनियों के पास यथाकृत उपधि नहीं है, अल्पपरिकर्मा उपधि है तो उस मध्यम उपधि के साथ यथाकृत उपधि मिला लेते हैं। यदि न मिलाएं तो अगीतार्थ के लिए वह गौरव का निमित्त बन जाता है।
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