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५४६८.पंचेगतरे गीए, आरुभियवते जयंतए तम्मि।
जं उवहिं उप्पाए, संभोइत सेसमुज्झंति॥ इन पार्श्वस्थ आदि पांचों में से कोई एक आता है और वह गीतार्थ है तो वह स्वयं महाव्रतों को अपने में आरोपित कर, यतमान होकर, उसमें जो प्राप्त करता है, वह सांभोगिक उपधि है, उसे रखकर शेष का परिष्ठापन कर देता है। ५४६९.पासत्थाईमुंडिए, आलोयण होइ दिक्खपभियं तु।
संविग्गपुराणे पुण, जप्पभिई चेव ओसण्णो॥ जो पार्श्वस्थ आदि से प्रव्रजित है, उसके दीक्षा दिन से आलोचना होती है। जो पहले संविग्न था, फिर पार्श्वस्थ हो गया, उसके जब से वह अवसन्न हुआ है तब से आलोचना होती है।
चौथा उद्देशक ५४६२.गीयत्थे ण मेलिज्जइ, जो पुण गीओ वि गारवं कुणइ।
तस्सुवही मेलिज्जइ, अहिकरण अपच्चओ इहरा॥ गीतार्थ यदि अगौरवी है तो उसकी उपधि अन्य उपधि के साथ नहीं मिलाई जाती। जो गीतार्थ होकर भी गौरव करता है, उसकी उपधि मिलाई जाती है। शिष्य ने पूछा-क्यों? आचार्य कहते हैं-उत्कृष्ट उपधि के साथ जघन्य उपधि का मिश्रण देखकर गीतार्थ कलह कर सकता है तथा शैक्षों को अप्रत्यय हो सकता है। ५४६३.एवं खलु संविग्गे, संविग्गे संकम करेमाणे।
संविग्गमसंविग्गे, असंविग्गे यावि संविग्गे॥ इस प्रकार संविग्न मुनि का संविग्न मुनि के गच्छ में संक्रमण करने की विधि कही गई है। अब संविग्न के असंविग्न गच्छ में संक्रमण तथा असंविग्न का संविग्न में संक्रमण की विधि बतलाई जा रही है। ५४६४.सीहगुहं वग्घगुहं, उदहिं व पलित्तगं व जो पविसे।
असिवं ओमोयरियं, धुवं से अप्पा परिच्चत्तो॥ जो सिंह की गुफा में, व्याघ्र की गुफा में, समुद्र में या प्रदीप्त नगर में प्रवेश करता है तथा जो अशिव, अवमौदर्य वाले क्षेत्र में जाता है, उसने निश्चित ही अपनी आत्मा को परित्यक्त कर दिया है। ५४६५.चरण-करणप्पहीणे, पासत्थे जो उ परिवसए समणो।
जतमाणए पजहिउं, सो ठाणे परिच्चयइ तिण्णि। इसी प्रकार जो श्रमण चरण-करण रहित पार्श्वस्थ आदि में प्रवेश करता है वह यतमान अर्थात् संविग्न मुनियों को छोड़कर तीन स्थानों-ज्ञान-दर्शन और चारित्र से परित्यक्त हो जाता है। ५४६६.एमेव अहाछंदे, कुसील-ओसन्न-नीय-संसत्ते। ___ जं तिन्नि परिच्चयई, नाणं तह दंसण चरित्तं॥
इसी प्रकार जो श्रमण यथाच्छंद तथा कुशील, अवसन्न, नित्यवासी तथा संसक्तों के स्थान में प्रवेश करता है वह पूर्वोक्त तीनों स्थानों-ज्ञान, दर्शन और चारित्र को परित्यक्त करता है। ५४६७.पंचण्हं एगयरे, संविग्गे संकम करेमाणे।
आलोइए विवेगो, दोसु असंविग्गे सच्छंदो। जो संविग्न मुनि इन पांचों-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त तथा यथाच्छंद-में से किसी एक में संक्रमण करता हुआ पहले आलोचना करे, फिर अशुद्ध उपधि का विवेकपरित्याग करे। जो दो में अर्थात् ज्ञान और दर्शन में असंविग्न है, वह उपसंपन्न होने में स्वच्छंद है उसे कोई प्रतीच्छक के रूप में स्वीकार न करे।
गणावच्छेइए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ गणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ गणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं
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