________________
५६०
बृहत्कल्पभाष्यम् श्रुतोपसम्पदा में बावीस नालबद्ध प्राप्त हो सकते हैं
संसर्गि-प्रीति हो, उनका आना-जाना हो और वे भिक्षु आदि १. माता ७. नानी १३. चाचा १९. पौत्र अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं और वे आचार्य २. पिता ८. नाना १४. बूआ २०. पौत्री तर्कशास्त्र के अज्ञाता होने के कारण मौन बैठे रहते हैं तो ३. भाई ९. मामा १५. भतीज २१. दोहिता पास में बैठा शैक्ष उन अन्य मतावलंबी भिक्षुकों आदि की ४. भगिनी १०. मौसी १६. भतीजी २२. दोहित्री प्रज्ञापना को सहन न करता हुआ, सोचता है-मैं अन्य गण में ५. पुत्र ११. दादी १७. भानेज
जाकर दर्शनप्रभावकग्रंथों का अध्ययन करूं। ऐसा सोचकर ६. पुत्री १२. दादा १८. भानेजी
वह आचार्य से आज्ञा लेता है। विसर्जित होने पर वह प्रस्थान ये ही बावीस श्रुतोपसम्पत् के आभाव्य होते हैं। सुख- कर देता है। दुःखोपसम्पत् वाला ये बावीस तथा पूर्वसंस्तुत और ५४२७.लोए वि अ परिवादो, भिक्खुगमादी य गाढ चमदिति। पश्चाद्संस्तुत तथा प्रपोत्र और श्वसुर आदि को प्रास करता विप्परिणमंति सेहा, ओभामिज्जति सड्डा य॥ है। क्षेत्रोसम्पत् वाला इन सबके साथ-साथ सभी वयस्कों को आचार्य द्वारा मौन रहने पर लोकों में निन्दा होती है। प्राप्त करता है। मार्गोपसम्पत् वाला इन सबको तथा दृष्ट भिक्षुक आदि जैनशासन की अत्यधिक अवहेलना करते हैं। और भाषित सबको तथा विनयोपसम्पत् वाला इन सबके । शैक्ष यह सारा सुनकर-देखकर विपरिणत हो जाते हैं और साथ दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात, अज्ञात को भी प्राप्त करता है। वह श्रावक अन्य उपासकों द्वारा तिरस्कृत होते हैं। विनययोग्य व्यक्तियों का विनय करता है।
५४२८.रसगिद्धो व थलीए, परतित्थियतज्जणं असहमाणो। ५४२४.सव्वस्स वि कायव्वं,
__गमणं बहुस्सुतत्तं, आगमणं वादिपरिसा उ॥ निच्छयओ किं कुलं व अकुलं वा। वे आचार्य रसगृद्ध होने के कारण उस स्थली में कुछ कालसभावममत्ते,
परिवाद नहीं करते, मौन रहते हैं। शिष्य अन्यतीर्थिकों की गारव-लज्जाहिं काहिंति॥ तर्जनाओं को सहन न करता हुआ वह अध्ययन के लिए अन्य निश्चयरूप से श्रुतवाचनादि कार्य सबके पास करनी । गण में जाता है और वहां बहुश्रुतत्व प्राप्त कर पुनः अपने गण चाहिए। उसमें कुल और अकुल की विचारणा से क्या में आता है, और वादकुशल परिषद् को परिचित कर वाद का प्रयोजन? किन्तु दुःषमा लक्षण वाले इस काल के अनुभाव के समायोजन करता है। फिर उन परतीर्थिक भिक्षुओं के साथ कारण 'यह मेरा आत्मीय है' आदि तथा जो गौरव और वाद-विवाद कर उन्हें निरुत्तर करता है। लज्जा है, इनसे प्रेरित होकर वे सुखपूर्वक श्रुत-वाचना का ५४२९. वायपरायणकुविया, जति पडिसेहंति साहु लढें च। कार्य करेंगे, इसलिए पहले प्रव्रज्या आदि से निकट वालों से
अह चिरणुगओ अम्हं, मा से पवत्तं परिहवेह॥ उपसंपदा ग्रहण करता है।
वाद में पराजित होने के कारण कुपित भिक्षु आदि उस ५४२५.कालिय पुव्वगए वा,
आचार्य को उसका वंट (हिस्सा) देने का प्रतिषेध करते हैं। _णिम्माओ जति य अत्थि से सत्ती। तब शिष्य सोचते हैं कि अच्छा हुआ। हम जैसा चाहते थे। दंसणदीवगहेडं,
वह हो गया। कोई भिक्षु आदि कहता है-ये आचार्य हमारे गच्छइ अहवा इमेहिं तु॥ साथ लंबे समय से रह रहे हैं, इनका दोष क्या है? परंतु कोई शिष्य कालिकश्रुत तथा पूर्वगतश्रुत में निर्मित हो इनको पूर्वप्रवृत्त देने का निषेध मत करो। गया हो और उसमें और अधिक ग्रहण की शक्ति है तो अपने ५४३०.काऊण य प्पणाम, छेदसुतस्सा दलाह पडिपुच्छं। दर्शन को उज्ज्वल उद्दीपन करने वाले ग्रंथों के अध्ययन के
अण्णत्थ वसहि जग्गण, तेसिं च णिवेदणं काउं॥ लिए अन्य गण में जाता है।
गुरु के चरणों में प्रणाम कर निवेदन करना चाहिए आप ५४२६.भिक्खूगा जहिं देसे,
हमें छेदसूत्रों की प्रतिपृच्छा दें। यहां से दूसरी वसति में हम बोडिय-थलि-णिण्हएहिं संसग्गी। चलें। यदि आचार्य चलने के लिए तैयार न हों तो उन्हें रात तेसिं पण्णवणं असहमाणे
भर जागरण कराये। उन अगीतार्थ मुनियों को निवेदन कर दें
वीसज्जिए गमणं॥ कि हम आचार्य को ले जायेंगे। जिस देश में भिक्षुक (बौद्ध), बोटिक, निलव आदि बहुत ५४३१.सदं च हेतुसत्थं, अहिज्जओ छेदसुत्त ण8 मे। हों, उनकी वहां स्थली हो, उनके साथ जैन आचार्य की
एत्थ य मा असुतत्था, सुणिज्ज तो अण्णहिं वसिमो।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org