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चौथा उद्देशक __ प्रतीच्छिका शिष्या पूर्वोद्दिष्ट या पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़ती हुई, प्रथम वर्ष में जो प्राप्त करती है, वह सारा प्रवाचक का होता है। ५४१७.संवच्छराई तिन्नि उ, सीसम्मि पडिच्छए उ तदिवसं।
एवं कुले गणे या, संवच्छर संघे छम्मासा॥ कुलसत्क आचार्य तीन वर्षों तक वाचना देता हुआ भी शिष्यों से कुछ नहीं लेता। जो प्रतीच्छक हैं उनको वाचना देता हुआ, जिस दिन आचार्य कालगत हुए हैं, उस दिन जो प्राप्त हो वह लेता है। इसी प्रकार कुलसत्क आचार्य की विधि है। गणसत्क आचार्य एक संवत्सर तक शिष्यों का सचित्तादिक नहीं लेता। संघसत्क आचार्य नियमतः छहमास तक कुछ नहीं लेता। इसलिए प्रतीच्छक आचार्य को वहां गण में तीन वर्ष तक अवश्य रहना चाहिए, आगे पुनः उनकी इच्छा। ५४१८.तत्थेव य निम्माए, अणिग्गए णिग्गए इमा मेरा।
सकुले तिन्नि तियाई, गणे दुगं वच्छरं संघे॥ यदि आचार्य के निर्गत होने से पूर्व गच्छ में किसी शिष्य का निर्माण हो गया हो तो अच्छा है। यदि निर्माण न हुआ हो और आचार्य निर्गत हो गए हों तो यह मेरा-सामाचारी है। स्वकीय कुलस्थविर वाचनाचार्य की व्यवस्था करते हैं। वे त्रयत्रिक अर्थात् नौ वर्षों तक वाचना देते हैं। गण भी दो वर्षों तक वाचना देता है और संघ एक वर्ष की वाचना की व्यवस्था करता है। यह क्रम तब तक आगे से आगे चलता है जब तक गच्छ में एक भी शिष्य का निर्माण नहीं हो जाता। ५४१९.ओमादिकारणेहि व, दुम्मेहत्तेण वा न निम्माओ।
__ काऊण कुलसमायं, कुल थेरे वा उवटुंति॥ शिष्य का निर्माण न होने के कारण-अवम, अशिव आदि कारणों, अनवरत पर्यटन के कारण तथा मेधा के अभाव में एक का भी निर्माण नहीं हुआ तब कुलसमवाय करके सभी कुलस्थविर के पास जाते हैं तब वे सबको उपसंपदा देते हैं। ५४२०.पव्वज्जएगपक्खिय, उवसंपय पंचहा सए ठाणे।
छत्तीसाऽतिक्कंते, उवसंपय पत्तुवादाए॥ १. पांचों प्रकार की उपसंपदा अपने-अपने स्थान में स्वीकृत करनी
चाहिए। तात्पर्य है कि श्रुतोपसंपत् वाले का स्वस्थान है श्रुतज्ञानी, सुख-दुखोपसंपत् वाले का स्वस्थान है जहां वैयावृत्य करने वाले हों, क्षेत्रोपसंपत् का स्वस्थान है जहां भक्तपान की प्राप्ति सुलभ हो, मार्गोपसंपद् वाले का स्वस्थान है जहां मार्गज्ञ हो, विनयोसंपद् वाले का स्वस्थान है जहां विनय करना युक्त है।
अथवा 'स्वस्थान' का तात्पर्य है-जहां श्रुत और प्रव्रज्या से
जो प्रवज्या से एकपाक्षिक है उसके पास उन सबको उपसंपदा ग्रहण करवाते हैं। वह उपसंपदा पांच प्रकार की है। छत्तीस वर्षों के (२४+१२) अतिक्रान्त होने पर, अपना स्थान प्राप्त कर, उन सबको उपसंपदा देनी चाहिए। ५४२१.गुरुसज्झिलओ सज्झंतिओ व
गुरुगुरु गुरुस्स वा णत्तू। अहवा कुलिच्चतो ऊ,
पव्वज्जाएगपक्खीओ। गुरु का सहाध्यायी, स्वयं का सब्रह्मचारी', गुरु का गुरु, गुरु का पौत्र-प्रशिष्य अथवा कुलसत्क समान कुलोद्भव ये सारे प्रव्रज्या के एकपाक्षिक माने जाते हैं। ५४२२.पव्वज्जाए सुएण य, चउभंगुवसंपया कमेणं तु।
पुव्वाहियवीसरिए, पढमासइ ततियभंगे उ॥ एक पाक्षिक दो कारणों से होता है-श्रुत से, प्रव्रज्या से। जिसके साथ श्रुत की एक वाचनिका ली हो, वह है श्रुत से एक पाक्षिक। यहां यह चतुभंगी होती है
१. प्रव्रज्या से एक पाक्षिक, श्रुत से भी एक पाक्षिक। २. प्रव्रज्या से एक पाक्षिक, श्रुत से नहीं। ३. श्रुत से एक पाक्षिक, प्रव्रज्या से नहीं। ४. न प्रव्रज्या से, न श्रुत से एक पाक्षिक।
इनके पास इस क्रम से उपसंपदा ग्रहण करनी चाहिए। पहले प्रथम भंग वाले के पास उपसंपन्न होना चाहिए। उसके अभाव में तीसरे भंग वाले के पास। क्योंकि जो पढ़ा हुआ श्रुत विस्मृत हो गया हो तो उसका सहजतया पुनरावर्तन किया जा सकता है, क्योंकि वह श्रुत से एक पाक्षिक है। ५४२३.सुय सुह-दुक्खे खेत्ते, मग्गे विणओवसंपयाए य।
बावीस संथुय वयंस दिट्ठभट्टे य सव्वे य॥ उपसंपदा के पांच प्रकार हैं१. श्रुतउपसम्पत्
४. मार्गतोपसम्पत् २. क्षेत्रोपसम्पत्
५. विनयोपसम्पत्। ३. सुख-दुःखोपसम्पत् इन पांचों का आभवद् व्यवहार इस प्रकार हैएकपाक्षिक हो वहां पहले उपसंपदा लेनी चाहिए, पश्चात् कुल और श्रुत से एकपाक्षिक के पास, फिर श्रुत और गण से एकपाक्षिक के पास, फिर श्रुत से एकपाक्षिक के पास, फिर प्रव्रज्या से एकपाक्षिक के पास, फिर जो श्रुत और प्रव्रज्या से एकपाक्षिक नहीं है, उसके
पास भी उपसंपदा ली जा सकती है। (वृ. पृ. १४३९) २. सन्झिलअ-सहाध्यायी। ३. सज्झंतिअ-सब्रह्मचारी।
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