________________
५५३ गवेषणा करे। यदि प्राप्त न हो तो चौथे परिवर्त में आधाकर्म का ग्रहण करे। ५३६०.चउरो चउत्थभत्ते, आयंबिल एगठाण पुरिमहूं।
णिव्वीयग दायव्वं, सयं च पुव्वोग्गहं कुज्जा। आचार्य स्वयं चार कल्याणक का प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं। उसमें चार उपवास, चार आयंबिल, चार एकाशन, चार पुरिमड्ड (पूर्वार्द्ध) और चार निर्वृकृति होते हैं। पंच कल्याणक में सभी पांच-पांच होंगे। आचार्य स्वयं ही पहले प्रायश्चित्त ग्रहण करे, जिससे कि शिष्य सुखपूर्वक उसे ग्रहण कर सकें। ५३६१.काल-सरीरावेक्खं, जगस्सभावं जिणा वियाणित्ता।
तह तह दिसंति धम्म, झिज्जति कम्मं जहा अखिलं॥ काल और शरीर के अनुरूप जगत् का स्वभाव जानकर तीर्थंकर उस-उस प्रकार से धर्म की देशना देते हैं, जिससे सारे कर्म क्षीण हो जाएं।
अण्णगण-उवसंपदा-पदं
चौथा उद्देशक ५३५५.सव्वजईण निसिद्धा, मा अणुमण्ण त्ति उग्गमा णे सिं।
इति कधिते पुरिमाणं, सव्वे सव्वेसि ण करेंति॥ जब उन गृहस्थों के आगे यह कहा जाता है कि सभी मुनियों के लिए उद्गम आदि दोष निषिद्ध हैं। गृहस्थ सोचते हैं-हमारी उन दोषों के लिए अनुमति न हो, इसलिए वे सभी साधुओं के लिए कोई दोष नहीं करते। वे प्रथम तीर्थ के गृहस्थ भी ऋजुजड़ होते हैं। ५३५६.उज्जुत्तणं से आलोयणाए जड्डत्तणं से जं भुज्जो।
तज्जातिए ण याणति, गिही वि अन्नस्स अन्नं वा॥ उनकी ऋजुता और जड़ता का स्वरूप उनकी ऋजुता यह है कि वे अकृत्य करके भी आलोचना कर लेते हैं। उनकी जड़ता यह है कि वे उन दोषों के जातीय दोषों को नहीं जानते और न उनका वर्जन करते हैं। गृहस्थों की जड़ता यह है कि एक के लिए वर्जित दोष दूसरों के निमित्त कर लेते हैं। उनकी ऋजुता यह है कि वे यथार्थ बात बता देते हैं। ५३५७.उज्जुत्तणं से आलोयणाए पण्णा उ सेसवज्जणया।
सण्णायगा वि दोसे, ण करेंतऽण्णे ण यऽण्णेसिं॥ ऋजुप्राज्ञ का स्वरूप-उनकी ऋजुता यह है कि वे अकृत्य की आलोचना करते हैं तथा उनका प्राज्ञत्व यह है कि वे तज्जातीय दोषों का स्वयं निवारण करते हैं। संज्ञातक भी साधुओं के लिए दोष नहीं करते, अन्य तज्जातीय दोषों का वर्जन करते हैं और न अन्य मुनियों को हेतु बनाकर दोषकारी कार्य करते हैं। ५३५८.वंका उ ण साहंती, पुट्ठा उ भणंति उण्ह-कंटादी।
पाहुणग सद्ध ऊसव, गिहिणो वि य वाउलंतेवं॥ वक्र-जड़ का स्वरूप-उनका वक्रत्व यह है कि वे अकृत्य कर स्वीकार नहीं करते। पूछने पर कहते हैं-मैं नटप्रेक्षण के लिए नहीं रुका था। गर्मी के कारण या कांटा चुभ जाने के कारण एक स्थान पर विश्राम करने बैठा था। आधाकर्म आदि निष्पन्न करने वाले गृहस्थ को पूछने पर कहता है-मेहमान
आ गए थे, आज यह खाने के लिए मन हो गया, आज अमुक उत्सव है-इस प्रकार गृहस्थ भी साधुओं को व्याकुल कर देते हैं, यथार्थ नहीं बताते। . ५३५९.आयरिए अभिसेगे,
भिक्खुम्मि गिलाणए य भयणा उ। तिक्खुत्तऽडवि पवेसे,
चउपरियट्टे तओ गहणं॥ द्वितीयपद यह है-आचार्य, अभिषेक या भिक्षुओं में से कोई ग्लान हो जाए तो आधाकर्म की भजना होती है। अध्वा में प्रवेश करने से पूर्व ही शुद्ध अध्वकल्प की तीन बार
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तिं वा थेरं वा गणिं वा गणहरं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरत्तए। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।
(सूत्र १६)
५३६२.कप्पातो व अकप्पं, होज्ज अकप्पा व संकमो कप्पे।
गणि गच्छे व तदुभए, चुतम्मि अह सुत्तसंबंधो॥ पूर्वसूत्र में कल्पस्थित और अकल्पस्थित बतलाए गए हैं। उनका स्थितकल्प से अस्थितकल्प में संक्रमण होता है और अस्थितकल्प से स्थितकल्प में संक्रमण होता है। अथवा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org