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चौथा उद्देशक = कर रहे हैं। इस प्रकार आकर्षण करने पर चतुर्लघुक और ५३७८.अन्नं अभिधारेतुं, अप्पडिसेह परिसिल्लमन्नं वा। यह शैक्ष मेरा हो-यह सोचकर आकर्षण करता है तो पविसंते कुलादिगुरू, सच्चित्तादी व से हाउं॥ चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है।
५३७९.ते दोऽवुवालभित्ता, अभिधारेज्जंते देति तं थेरा। ५३७३.अक्खर-वंजणसुद्धं, मं पुच्छह तम्मि आगए संते।
घट्टण विचालणं ति य, पुच्छा विप्फालणेगट्ठा॥ घोसेहि य परिसुद्धं, पुच्छह णिउणे य सुत्तत्थे। अन्य आचार्य का अभिधारण कर अप्रतिषेधक या यदि वह शैक्ष यहां आता है तो उसके आने के पश्चात् तुम परिषद् प्रिय आचार्य या अन्य किसी के गण में प्रवेश करता मुझे अक्षर-व्यंजन शुद्ध तथा घोष से परिशुद्ध सूत्रपाठ पूछना। है, उपसंपन्न होता है, उसे यदि कुलस्थविर, गणस्थविर या उस समय निपुण सूत्रार्थ को पूछना। इस प्रकार उसकी अन्यत्र संघस्थविर जान लेते हैं तो वे सचित्त या अचित्त, जो कुछ गच्छ में जाने का प्रतिषेध करते हैं।
उसने उपनीत किए हैं, उसका हरण कर, उस आचार्य और ५३७४.पाउयमपाउया घट्ट मट्ठ लोय खुर विविधवेसहरा। प्रतिच्छक को उपालंभ देते हैं तथा उसकी घट्टना कर वे
परिसिल्लस्स तु परिसा, थलिए व ण किंचि वारेति॥ स्थविर उसे अभिधारित आचार्य के पास भेज देते हैं। घट्टण, जो आचार्य परिसिल्ल–पर्षप्रिय होता है वह असंविग्न विचारणा, पृच्छना तथा विस्फालना ये एकार्थकपद हैं। या संविग्न पर्षद् का संग्रहण करता है। वहां कुछ मुनि ५३८०.घट्टेउं सच्चित्तं, एसा आरोवणा उ अविहीते। प्रावृत, कुछ अप्रावृत, कुछ घृष्ट-मृष्ट, कुछ लुंचित और बितियपदमसंविग्गे, जयणाए कयम्मि तो सुद्धो॥ कुछ खुरमुंडित-इस प्रकार उसकी परिषद् विविध वेषधारी प्रतीच्छक को पूछकर उसे धारित आचार्य के पास भेज होती है। देवद्रोणी की भांति वह आचार्य कुछ भी वर्जना देते हैं। पहले जो आरोपणा कही गई है (प्रतिषेधकत्व तथा नहीं करता।
पर्षद् मीलन की) वह अविधि निष्पन्न है। द्वितीयपद में ५३७५.तत्थ पवेसे लहुगा, सच्चित्ते चउगुरुं च आणादी। अभिधारित आचार्य यदि असंविग्न है तो यतनापूर्वक
उवहीनिप्फण्णं पि य, अचित्त चित्ते य गिण्हते॥ प्रतिषेधकत्व किया जा सकता है। वह शुद्ध है। वैसे गच्छ में प्रवेश करने पर चतुर्लघु, शैक्ष (सचित्त) के ५३८१.अभिधारेतो पासत्थमादिणो तं च जति सुतं अत्थि। साथ प्रवेश करने पर चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष होते
जे अ पडिसेहदोसा, ते कुव्वंतो वि णिद्दोसो॥ हैं। उपधि के साथ प्रवेश करने पर उपधिजनित प्रायश्चित्त भी जिनकी अभिधारणा कर वह जाता है वे आचार्य यदि आता है। सचित्त और अचित्त ग्रहण करने पर अन्य पार्श्वस्थ आदि दोषदुष्ट हों, जो श्रुत यह पढ़ना चाहे वह प्रायश्चित्त।
यदि प्रतिषेधक के पास है तो जो प्रतिषेध करने के दोष हैं, ५३७६.ढिंकुण-पिसुगादि तहिं, सोतं णाउं व सण्णिवत्तंते। उनको करता हुआ भी वह शुद्ध है।
___ अमुगसुतत्थनिमित्तं, तुज्झम्मि गुरूहि पेसविओ॥ ५३८२.जं पुण सच्चित्ताती, तं तेसिं देति ण बि सयं गेण्हे।
ढिंकुण, पिशुण आदि क्षुद्र जंतुओं का उपद्रव सुनकर या बितियऽच्चित ण पेसे, जावइयं वा असंथरणे॥ जानकर वहां से निवर्तन करने पर मासलघु तथा अमुक- प्रतीच्छक ने आते हुए जो सचित्त आदि प्राप्त किए थे, वे श्रुतग्रहण के निमित्त गुरु ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है-इस धारित आचार्य को देता है, स्वयं नहीं रखता। द्वितीयपद में प्रकार कहने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है।
जो वस्त्र आदि अचित्त प्राप्त किए थे, उनको वह नहीं भी ५३७७.आणाए जिणिंदाणं,
भेजता। उसमें से जितना आवश्यक होता है, उतना रखता ण हु बलियतरा उ आयरियआणा। है, शेष भेज देता है। यदि पर्याप्त न हो तो सारा ग्रहण कर जिणआणाए परिभवो,
लेता है।
एवं गव्वो अविणतो य॥ ५३८३.नाऊण य वोच्छेयं, पुव्वगए कालियाणुओगे य। शिष्य ने पूछा-ऐसा कहने में क्या दोष है? आचार्य कहते सयमेव दिसाबंधं, करेज्ज तेसिं न पेसेज्जा। हैं-जिनेन्द्रों की आज्ञा से आचार्य की आज्ञा बलवान् नहीं पूर्वगत श्रुत और कालिकानुयोग का व्यवच्छेद जानकर होती। इस प्रकार आचार्य की आज्ञा से श्रुत देने पर जिनेन्द्रों स्वयं ही उनके साथ आत्मीय दिग्बंध करे, पहले धारित के की आज्ञा का परिभव होता है। तथा भेजने वाले, उपसंपद्यमान पास न भेजे। और श्रुत देने वाले तीनों को गर्व होता है और तीर्थंकर तथा ५३८४.असहातो परिसिल्लत्तणं पि कुज्जा उ मंदधम्मेसू। श्रुत का अविनय होता है।
पप्प व काल-ऽद्धाणे, सच्चित्तादी वि गेण्हेज्जा॥
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