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= बृहत्कल्पभाष्यम् गणी-आचार्य या उपाध्याय में तथा गच्छ में सूत्र और अर्थ प्रतिषेध आचार्यों के चतुर्गुरू। जो सचित्त या अचित्त आभाव्य दोनों की विस्मृति होने पर गच्छान्तर में संक्रमण होता है। है, उनको कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं। यह सूत्र के साथ संबंध है।
५३६८.संसाहगस्स सोउं, पडिपंथिगमादिगस्स वा भीओ। ५३६३.तिट्ठाणे अवकमणं, णाणट्ठा दंसणे चरित्तट्ठा।
आयरणा तत्थ खरा, सयं व गाउं पडिणियत्तो॥ आपुच्छिऊण गमणं, भीतो त नियत्तते कोती १॥ संसाधक-पीछे से आने वाले साधु से सुनकर, ५३६४.चिंतंतो वइगादी, संखडि पिसुगादि अपडिसेहे य।। प्रतिपंथिक संमुखीन साधु से सुनकर अथवा स्वयं जानकर
परिसिल्ले सत्तमए, गुरुपेसविए य सुद्धे य॥ कि उस गच्छ में चर्या कर्कश है, यह जानकर भयभीत होकर तीन स्थानों कारणों से गण से अपक्रमण होता है-ज्ञान जो मुनि निवर्तित हो जाता है, उसे पंचक का प्रायश्चित्त के लिए, दर्शन के लिए और चारित्र के लिए। आचार्य को आता है। पूछकर अपक्रमण करना चाहिए। अपक्रमण करने वाले के ये ५३६९.पुव्वं चिंतेयव्वं, णिग्गतो चिंतेति किं णु हु करेमि। अतिचार होते हैं
वच्चामि नियत्तामि व, तहिं व अण्णत्थ वा गच्छे॥ १. कोई परगण के आचार्य के कर्कश चर्या से भीत होकर जाने से पूर्व सोचना चाहिए। गच्छ से निर्गत होने के बाद लौट आता है।
सोचता है-मैं क्या करूं? जाऊं या लौट जाऊं? अथवा उस २. मैं जाऊं या नहीं इस चिंतन से जाता है।
गच्छ में जाऊं या अन्यत्र चला जाऊं? ३. वजिका का प्रतिबंध करता है। दानश्राद्धों की दीर्घ ५३७०.उव्वत्तणमप्पत्ते, लहुओ खद्धस्स भुंजणे लहुगा। गोचरी करता है।
णीसट्ठ सुवणे लहुओ, संखडि गुरुगा य जं चऽण्णं॥ ४. संखडियों में प्रतिबंध करता है।
कोई चलते-चलते व्रजिका की बात सुनकर मार्ग का ५. पिशुक-मत्कुण आदि के भय से निवर्तित हो जाता है। उद्वर्तन कर व्रजिका के पास आता है और अप्राप्त वेला की ६. वहां का आचार्य अप्रतिषेधक है।
प्रतीक्षा करता है। वेला होने पर वहां अत्यधिक भोजन कर ७. जो पर्षद्वान् है।
लेता है। उसको चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। वह वहां ८. मैं गुरु द्वारा प्रेषित हूं-ऐसा कहता है।
लंबे समय तक सो जाता है। उसको लघुमास का (इन आठ पदों में उन-उन पदों का प्रायश्चित्त आता है।) प्रायश्चित्त है। संखड़ी में अप्राप्तकाल की प्रतीक्षा करने तथा ५३६५.पणगं च भिण्णमासो, मासो लहुगो य संखडी गुरुगा। प्रचुरमात्रा में द्रव्य लेने पर चतुर्गुरु। वहां होने वाले
पिसुमादी मासलहू, चउरो लहुगा अपडिसेहे॥ अन्य-अन्य संघट्टन या आक्रमण के पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त ५३६६.परिसिल्ले चउलहुगा, गुरुपेसवियम्मि मासियं लहुगं। आते हैं।
सेहेण समं गुरुगा, परिसिल्ले पविसमाणस्स॥ ५३७१.अमुगत्थ अमुगो वच्चति, मेहावी तस्स कड्ढणट्ठाए। ५३६७.पडिसेहगस्स लहुगा,
पंथ ग्गामे व पहे, वसधीय व कोइ वावारे।। परिसेल्ले छ च्च चरिमओ सुद्धो। ५३७२.अभिलावसुद्ध पुच्छा, रोलेणं मा हुभे विणासेज्जा। तेसिं पि होति गुरुगा,
इति कहूते लहुगा, जति सेहट्ठा ततो गुरुगा॥ जं चाऽऽभव्वं ण तं लभती॥ अमुक आचार्य के पास अमुक मेधावी शिष्य जा रहा है, जो भीत होकर निवर्तित हो जाता है उसे पंचक, जो उस शिष्य को अपनी ओर खींचने के लिए आचार्य अपने चिंतन करता है उसे भिन्नमास, वजिका आदि में प्रतिबद्ध को शिष्यों को व्यापृत करता है। उन्हें कहता है-वह मेधावी मासलघु, संखड़ी में प्रतिबद्ध को चतुर्गुरु, पिशुकादि भय से शिष्य मार्ग में या गांव में भिक्षा करेगा, अमुक मार्ग से निवर्तमान को मासलघु, अप्रतिषेधक के पास रहने से आएगा, अमुक वसति में ठहरेगा। तुम वहां जाओ और चारलघु। पर्षद्वान् आचार्य के पास रहने से चतुर्लघु, गुरु ने अभिलापशुद्ध पाठ का परावर्तन करते हुए बैठो। यदि वह भेजा है यह कहने पर लघुमास, शैक्ष के साथ पर्षद्वान् गच्छ तुमसे पूछे कि तुम यहां क्यों बैठे हो? तो उसे में जाने पर चतुर्गुरु, उपकरण सहित जाने पर उपधि निष्पन्न कहना-हमारे वाचनाचार्य अभिलापशुद्ध से पाठ की वाचना प्रायश्चित्त। प्रतिषेधक के पास जाने पर चतुर्लघु, पर्षद् को । देते हैं। वे हमें कहते हैं यहां उपाश्रय में बहुत कोलाहल मिलाने वाले के पास जाने पर षड्लघु। जो भीत आदि दोष रहता है। यहां उस कोलाहल से अपने अभिलाप का रहित है, वह शुद्ध है। अपने गच्छ में प्रवेश कराने वाले विनाश मत करो। इसलिए हम यहां एकान्त में परावर्तन
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