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चौथा उद्देशक
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आहार ग्रहण कर लिए जाने पर क्या विधि है? प्रस्तुत सूत्र इसी विषय का है। ५३१६.अहवण सचित्तदव्वं, पडिसिद्धं दव्वमादिपडिसेहे।
इह पुण अचित्तदव्वं, वारेति अणेसियं जोगो॥ अथवा पूर्वतरसूत्रों में द्रव्य आदि के प्रतिषेध में सचित्त द्रव्य का प्रतिषेध किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में अनेषणीय अचित्तद्रव्य का वारण किया गया है। यह योग-संबंध है। ५३१७.अन्नतरऽणेसणिज्ज आउट्टिय गिण्हणे तु जं जत्थ।
अणभोग गहित जतणा, अजतण दोसा इमे होति॥ उद्गम, उत्पादन आदि किसी एक प्रकार के दोष से अनेषणीय आहार को कोई मुनि आकुट्टिका-'मैं स्वयं खाऊंगा तथा शैक्ष को दूंगा'-इस भावना से ग्रहण करता है तो उसे उस दोष का प्रायश्चित्त आता है जिस दोष से वह आहार दुष्ट है। अनाभोग से अनेषणीय आहार लेने पर उसे यतनापूर्वक शैक्ष को देना चाहिए। अयतना के ये दोष हैं५३१८.मा सव्वमेयं मम देहमन्नं,
उक्कोसएणं व अलाहि मज्झं। किं वा ममं दिज्जति सव्वमेयं,
इच्चेव वुत्तो तु भणाति कोई॥ शैक्ष कहता है-सारा भक्त मुझे न दें। यह उत्कृष्ट है इसलिए मुझे दे रहे हैं, उत्कृष्ट भक्त से मुझे क्या? यह सारा मुझे ही क्यों दे रहे हैं। शैक्ष के यह कहने पर कोई दूसरा कहता है५३१९.एतं तुब्भं अम्हं, न कप्पति चउगुरुं च आणादी।
संका व आभिओग्गे, एगेण व इच्छियं होज्जा॥ यह तुमको कल्पता है, हमें नहीं कल्पता। ऐसा कहने वाले के चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। शैक्ष को आभियोग (कार्मण) विषयक शंका होती है। एक किसी को वह ईप्सित भी हो सकता है। ५३२०.कम्मोदय गेलन्ने, दट्टण गतो करेज्ज उड्डाह। ____ एगस्स वा वि दिण्णे, गिलाण वमिऊण उड्डाहो॥
किसी शैक्ष को कर्मोदय से ग्लानत्व हो गया। वह सोचता है, किसी ने आभियोग कराया है। यह देखकर-सोचकर वह गृहवास में चला जाता है और उड्डाह भी करता है। एक के ऐसा होने पर दूसरा भी व्रतों को छोड़कर उड्डाह करता है। ५३२१.मा पडिगच्छति दिण्णं,
से कम्मण तेण एस आगल्लो। जाव ण दिज्जति अम्ह वि,
__ ह णु दाणि पलामि ता तुरियं। यह व्रतों को छोड़कर प्रतिगमन न कर दे, यह सोचकर
इसको कार्मण दिया है। इसलिए यह आगल्ल-ग्लान हुआ है। ये मुझे भी कार्मण न दे दें उससे पहले ही मैं भी शीघ्र ही पलायन कर जाऊंगा। ५३२२.भत्तेण मे ण कज्ज, कल्लं भिक्खं गतो व भोक्खामि।
अण्णं व देह मज्झं, इय अजते उज्झिणिगदोसा॥ अथवा कोई यह भी कहता है कि मुझे इस भक्त से क्या प्रयोजन। कल या भिक्षा से लाकर भोजन कर लूंगा। मुझे दूसरा भोजन दें। इस प्रकार अयतनापूर्वक दिए जाने पर परिष्ठापनिका का दोष होता है। ५३२३.ह णु ताव असंदेहं, एस मओ हं तु ताव जीवामि।
वग्घा हु चरंति इमे, मिगचम्मगसंवुता पावा॥ 'ह' खेद है, 'णु'-वितर्कणा करता है। यह मर गया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। मैं तो अभी जीवित हूं। ये पापीदुष्ट श्रमण मृगचर्म से संवृत होकर व्याघ्र की भांति विहरण कर रहे हैं। जब तक ये मुझे मार न डाले, उससे पूर्व ही मैं यहां से चला जाऊं। इस प्रकार एक के ग्लान होने पर दूसरा शैक्ष सोचता है। ५३२४.अभिओगपरज्झस्स हु,को धम्मो किं व तेण णियमेणं।
अहियक्करगाहीण व, अभिजोएंताण को धम्मो॥ वह शैक्ष सोचता है-आभियोग-कार्मण के प्रयोग से मैं इनके वशीभूत हूं। मेरे कौन सा धर्म है? उन नियमों से मुझे क्या? अधिक करग्रहण करने वालों की भांति इन मुनियों का, जो अभियोग का प्रयोग करते हैं, कौन सा धर्म है? इस प्रकार सोचकर वह शैक्ष गृहवास की ओर पलायन कर जाता है। ५३२५.किच्छाहि जीवितो हं, जति मरिउं इच्छसी तहिं वच्च।
एस तु भणामि भाउग!, विसकुंभा ते महुपिहाणा॥ वह शैक्ष कहता है-मैं इन साधुओं के पास बहुत दुःख से जी रहा हूं। यदि तू मरना चाहता है तो इन साधुओं के पास जा। भाई! मैं यह बात तुझे बता रहा हूं कि वे मुनि विष से भरे हुए घड़े हैं, उन घड़ों पर मधु का ढक्कन है। दूसरे शब्दों में मधु के ढक्कन से ढंके हुए वे विषकुंभ हैं। ५३२६.वातादीणं खोभे, जहण्णकालुत्थिए विसाऽऽसंका।
अवि जुज्जति अन्नविसे, णेव य संकाविसे किरिया।। मुनियों द्वारा आहारदान के पश्चात् शैक्ष में वायु आदि क्षुब्ध हो जाने पर, तत्काल उत्थित उस पीड़ा के कारण वह यह आशंका करता है कि इन मुनियों ने मुझे विष दे डाला है। इस चिंतन से शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाती है। क्योंकि अन्य सभी विषयों के लिए मंत्र आदि क्रियाएं हैं, किन्तु शंका के विषय की कोई चिकित्सा नहीं है।
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