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५४८ ५३०७.एवं पि परिच्चत्ता, काले खमए य असहुपुरिसे य।
कालो गिम्हो उ भवे, खमओ वा पढम-बितिएहिं॥ प्रेरक कहता है-इस प्रकार भी वे शिष्य परित्यक्त हो जाते हैं, क्योंकि वे बेचारे भूखे-प्यासे मार्ग में भार लेकर आते हैं और आप यहां आराम से बैठे हैं। आचार्य ने कहाउन शिष्यों के काल (समय) को जानकर, तपस्या को तथा उनकी असहिष्णुता को देखकर प्रथमालिका करने की अनुमति दी है। काल ग्रीष्म ऋतु हो सकता है, तपस्या हो सकती है तथा पहले-दूसरे परीषह की असहिष्णुता हो सकती है। ५३०८.जइ एवं संसट्टे, अप्पत्ते दोसियाइणं गहणं।
लंबण भिक्खा दुविहा, जहण्णमुक्कोस तिय पणए॥ यदि इस प्रकार प्रथमालिका करते हैं तो सारा भक्त संसृष्ट हो जाता है। संसृष्ट भक्त गुरु आदि को देने से अभक्ति होती है। देश-काल के अप्राप्त होने पर दोषान्न-वासी भोजन ग्रहण करते हैं और वही प्रथमालिका में काम आता है। प्रथमालिका का प्रमाण दो प्रकार से होता है-कवल से
और भिक्षा से। जघन्यतः तीन कवल और तीन भिक्षा तथा उत्कृष्टतः पांच कवल और पांच भिक्षा। शेष सारा मध्यम प्रमाण है। ५३०९.एगत्थ होइ भत्तं, बितियम्मि पडिग्गहे दवं होति। . गुरुमादीपाउग्गं, मत्तए बितिए य संसत्तं॥
दो साधुओं के दो पात्र और दो मात्रक होते हैं। एक पात्र में भक्त और दूसरे में पानक। एक मात्रक में आचार्य के प्रायोग्य और दूसरे मात्रक में संसक्त भक्त या पानक। ५३१०.जति रिक्को तो दवमत्तगम्मि पढमालियाए गहणं तु। ___ संसत्त गहण दवदुल्लभे य तत्थेव जं पंतं॥
यदि द्रवमात्रक रिक्त हो तो उसमें प्रथमालिका ग्रहण करनी चाहिए। अथवा उस द्रवमात्रक में संसक्त द्रव लेना चाहिए। उस क्षेत्र में यदि द्रव दुर्लभ हो तो उसी भक्तपात्र में जो प्रान्त भक्त हो उसे एक ओर कर देना चाहिए। ५३११.बिइयपदं तत्थेवा, सेसं अहवा वि होइ सव्वं पि।
तम्हा गंतव्वं आणणं, व जति वि पुट्ठो तह वि सुद्धो। अपवादपद यह है-अत्यंत भूख लगी हो तो वहीं अपना संविभाग खा ले। शेष सारा ले आए। अथवा वहीं स्वयं का तथा पर का संविभाग खा ले। इसलिए विधिपूर्वक जाए, विधिपूर्वक लाए और विधिपूर्वक ही वहां भोजन करे। विधिपूर्वक करते हुए भी यदि दोषों से स्पृष्ट हो तो भी वह शुद्ध है।
बृहत्कल्पभाष्यम् ५३१२.अंतरपल्लीगहितं, पढमागहियं व भुंजए सव्वं ।
संखडि धुवलंभे वा, जं गहियं दोसिणं वा वि॥ अन्तरपल्लि (वह वसति जो मूल गांव से ढ़ाई कोस दूर हो) में गृहीत अथवा प्रथम पौरुषी में गृहीत वह सारा खाले। यदि यह निश्चित रूप से ज्ञात हो कि संखड़ी में मिलेगा तो जो पहले लिया हुआ हो अथवा वासी भोजन लिया हो, वह सारा खाले। ५३१३.दरहिंडिएव भाणं, भरियं भुत्तुं पुणो वि हिंडिज्जा।
कालो वाऽतिक्कमई, भुंजेज्जा अंतरा सव्वं॥ अथवा कुछ घूमने पर ही पात्र भक्त से भर गया। उसमें से पर्यास खाकर पुनः भिक्षा के लिए घूमे। अथवा आचार्य के पास आते-आते काल अतिक्रान्त हो जाने की आशंका हो तो बीच में ही सारा खाले। ५३१४.परमद्धजोयणातो, उज्जाण परेण जे भणिय दोसा।
आहच्चुवातिणाविए ते चेवुस्सग्ग-अववाता॥ यदि आधे योजन के आगे से आ रहा हो तो जो उद्यान के आगे के अतिक्रमण के जो दोष हैं वे ही दोष प्राप्त होते हैं। यदि अजानकारी से काल अतिक्रान्त हो जाए तो वे ही उत्सर्ग और अपवाद जानने चाहिए। उत्सर्गतः नहीं खाना चाहिए, अपवादतः खा लेना चाहिए।
अणेसणिज्ज-पाण-भोयण-पदं
निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्वेणं अण्णतरे
अचित्ते अणेसणिज्जे पाण-भोयणे पडिग्गाहिए सिया, अत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पइ से तस्स दाउं अणुप्पदाउं वा। नत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवठ्ठावियए, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अण्णेसिं दावए एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्टवेयव्वे सिया॥
(सूत्र १४)
५३१५.आहार एव पगतो, तस्स उ गहणम्मि वणिया सोही।
आहच्च पुण असुद्धे, अचित्त गहिए इमं सुत्तं॥ पूर्वसूत्र में आहार का ही अधिकार था। उसमें आहार के ग्रहण संबंधी शोधि बताई थी। कदाचित् अशुद्ध अचित्त
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