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५३२७. केइ पुण साहियव्वं, अस्समणो हं ति पडिगमो होज्ज
दायव्वं जतणाए, णाए अणुलोमणाऽऽउट्टी ॥ कुछेक आचार्य कहते हैं उस शैक्ष को यह स्पष्टरूप से कहना चाहिए कि यह आहार तुम्हें कल्पता है, हमें नहीं । यह सुनकर वह मन ही मन सोचता है - यह श्रमणों को कल्पनीय नहीं है, मुझ अश्रमण को कल्पनीय है। मैं तो अश्रमण हूं। वह प्रतिगमन कर देता है। अतः उसे यतनापूर्वक आहार देना चाहिए। यदि ज्ञात हो जाए तो उसे अनुलोम वचनों से प्रज्ञापना करनी चाहिए जिससे उसे आवृत्ति समाधान मिल जाए।
५३२८. अभिनवधम्मो सि अभावितो सि
तब चेवऽद्वा महितं
५३२९. कप्पो च्चिय सेहाणं,
बालो व तं सि अणुकंपो ।
भुंजिज्जा तो परं छंदा ।
पुच्छसु अण्णे वि एस ह जिणाणा ।
सामाइयकप्पठिती,
एसा सुत्तं चिमं बेंति ॥
प्रज्ञापना की विधि यह है
तुम अभिनवधर्मा हो- अभी प्रव्रजित हुए हो, अभावित हो - भिक्षा के भोजन से अपरिचित हो, बालक हो, अनुकंप्य हो, देखो, तुम्हारे लिए ही यह भक्तपान गृहीत है, आगे से तुम स्वच्छंद रूप से भोजन करना। यह शैक्ष मुनियों का कल्प है कि उनको अनेषणीय भी कल्पता है अन्य गीतार्थं मुनियों को भी पूछ लो यह जिनाज्ञा है। यह सामायिक कल्प की स्थिति है। यह सूत्र भी यही कहता है।
५३३०. परतित्थियपूयातो, पासिय विविहातो संखडीतो य
विप्परिणमेज्ज सेधो, कक्खडचरियापरिस्संतो ॥ किसी क्षेत्र में परतीर्थिकों की पूजा तथा विविध प्रकार की संखड़ियों को देखकर कोई शैक्ष निर्ग्रन्थ मुनियों की कर्कश चर्या से परिश्रान्त होकर विपरिणत हो जाता है।
देतो, लग्गइ सद्वाणपच्छित्ते ॥
५३३१. नाऊण तस्स भावं, कप्पति जतणाए ताहे दाउं जे। संथरमाणे उस शैक्ष के भावों को जानकर यतनापूर्वक एषणीय के अभाव में अनेषणीय भक्त भी देना कल्पता है। यदि उसे न चाहते हुए भी दिया जाता है तो स्वस्थानप्रायश्चित्त प्राप्त होता है- जिस दोष से वह अशुद्ध है, तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है।
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५३३२. सेहस्स व संबंधी, तारिसमिच्छंते वारणा णत्थि । कक्खडे व महिडीए, बितियं अद्धाणमादीसु ॥
बृहत्कल्पभाष्यम्
शैक्ष के कोई संबंधी- स्वजन व्यक्ति उत्कृष्ट भक्तपान लाकर दे और वह भोजन करना चाहे तो उसका निषेध नहीं है । कक्खड - कर्कश अर्थात् अवमौदर्य की स्थिति में जो महर्द्धिक प्रब्रजित हुआ है, उसको प्रायोग्य अनेषणीय भक्तपान दिया जा सकता है। अध्वा आदि अपवाद पद होता है, स्वयं भी अनेषणीय लेते भी शुद्ध हैं । ५३३३. नीया व केई तु विस्वस्वं
हुए
आज्ज भत्तं अणुवट्ठियस्सा |
स चावि पुच्छेज्ज जता तु थेरे,
तदा ण वारेंति णं मा गुरुगा ॥ शैक्ष के कुछेक निजी व्यक्ति अनुपस्थित शैक्ष के लिए अनेक प्रकार का भक्तपान लाते हैं। यदि वह स्थविर अर्थात् आचार्य को पूछे कि मैं वह भक्तपान ग्रहण करूं या नहीं, तब गुरु शैक्ष को वर्जना नहीं करते, क्योंकि वर्जना करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है।
५३३४. लोलुग सिणेहतो वा, अण्णहभावो व तस्स वा तेसिं
गिves तुभे वि बहु, पुरिमड्डी णिव्विगतिगा मो ॥ ५३३५. मंदक्खेण ण इच्छति, तुब्भे से देह बेह णं तुब्भे ।
किं वा वारेमु वयं, गिण्हतु छदेण तो बिंति ॥ वह शैक्ष लोलुपतावश या संज्ञातकों के स्नेह से भक्त लेना चाहे और गुरु उसका निषेध करें तो संज्ञातकों का तथा स्वयं शैक्ष का विपरिणमन हो सकता है। संज्ञातक यदि अन्य मुनियों को निमंत्रित कर कहे भक्त प्रचुरमात्रा में है, आप भी लें। तब उन्हें कहे हमें पुरिमड्ड का प्रत्याख्यान है या आज हम निर्विकृतिक हैं। तब संज्ञातक यह कहें कि यह शैक्ष मंदाक्ष है लज्जालु हैं। यह ग्रहण करना नहीं चाहता। इसलिए आप ग्रहण कर उसे दें या उसको कहें कि वह ग्रहण करे। तब मुनि कहते हैं-हम उसको लेने का निषेध कहां कर रहे हैं? वह अपनी इच्छा से जितना चाहे उतना ग्रहण करे। ५३३६. वीसुं वोमे घेतुं, दिंति व से संथरे व उज्झति ।
भावेंता विड्ढिमतो, दलंति जा भावितोऽणेसिं ॥ अवम अर्थात् दुर्भिक्ष के समय अनेषणीय को पृथक् पात्र में ग्रहण कर उसे शैक्ष को दे और उसके पर्याप्त हो जाने पर
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शेष बचे हुए की परिष्ठापना कर दे। मुनि प्रव्रजित ऋद्धिमान् व्यक्ति को भैक्ष- भोजन की भावना से भावित करने का प्रयास करते हैं और जब तक वह भावित नहीं होता तब तक अन्यान्य दोषयुक्त प्रायोग्य भोजन उसे लाकर देते हैं। ५३३७. तित्यविवडीय पभावणा व ओभावणा कुलिंगीणं ।
एमादी तत्थ गुणा, अकुव्वतो भारिया चतुरो ॥ ऋद्धिमान के प्रव्रजित होने पर ये गुण होते हैं तीर्थ की
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