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चौथा उद्देशक ५२७३.तं काउ कोइ न तरइ, गिलाणमादीण दाउमच्चुण्हे।
नाउं व बहुं वियरइ, जहासमाहिं चरिमवज्जं॥ गर्मी के कारण अत्यंत आतप में जाकर ग्लान आदि के लिए उष्ण आहार आदि लाना संभव न हो तो आहार आदि रखा जा सकता है। अथवा यह जानकर कि भिक्षा बहुत आ गई है तो गुरु उसका वितरण कर देते हैं। प्रथम प्रहर में प्राप्त अशन आदि को यथासमाधि दूसरे-तीसरे प्रहर में काम में ले ले। चौथे प्रहर का वर्जन करे। ५२७४.संसज्जिमेसु छुब्भइ, गुलाइ लेवाडे इयरे लोणाई।
जं च गमिस्संति पुणो, एसेव य भुत्तसेसे वि॥ स्थापित आहार आदि की यतना-संसक्तियोग्य तथा लेपकृत द्रव्यों में (गोरस आदि द्रव्यों में) गुड़ आदि डाला जाता है, जिससे वे संसक्त न हों। इतर अर्थात् अलेपकृत द्रव्यों में लवण आदि का प्रक्षेप किया जाता है। मुनि थोड़े समय पश्चात् पुनः खायेंगे यह सोचकर-भुक्तशेष बचे हुए के धारण करने की यही विधि है। ५२७५.चोएइ धरिज्जते, जइ दोसा गिण्हमाणि किन्न भवे।
उस्सग्ग वीसमंते, उब्भामादी उदिक्खंते॥ यहां शंका होती है कि क्या यदि भुक्तशेष को धारण करने के ये दोष हैं तो क्या भक्तपान ग्रहण करने में ये नहीं हैं ? ये दोष होते ही हैं। कायोत्सर्ग करते समय भी बाहु- परितापन आदि दोष होते हैं तो विश्राम करते समय भी ये ही दोष होते हैं। उद्भ्रामक भिक्षा की प्रतीक्षा करने वाले के भी वे ही दोष होते हैं। ५२७६.एवं अवातदंसी, थूले वि कहं ण पासह अवाये।
हंदि हु णिरंतरोऽयं, भरितो लोगो अवायाणं॥ जिज्ञासु कहता है-आप सूक्ष्म अपायों को भी देखते हैं तो फिर स्थूल अपायों (भिक्षाचर्या में होने वालों) को क्यों नहीं देखते? निश्चितरूप से आप देखें कि यह संसार निरंतर अपायों से भरा पड़ा है। ५२७७.भिक्खादि-वियारगते, दोसा पडिणीय-साणमादीया।
उप्पज्जंते जम्हा, ण हु लब्भा हिंडिउं तम्हा।। भिक्षाचर्या में तथा विचार आदि भूमी के लिए गए हुए मुनि के प्रत्यनीक, श्वान, गाय आदि से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए वह अधिक घूम नहीं सकता। ५२७८.अहवा आहारादी, ण चेव णिययं हवंति घेत्तव्वा।
णेवाऽऽहारेयव्वं, तो दोसा वज्जिया होति॥ अथवा आहार आदि सर्वदा नहीं लेना चाहिए, आहार करना ही नहीं चाहिए, जिससे सारे दोष निवारित हो जाएंगे, अपाय होंगे ही नहीं।
५२७९.भण्णति सज्झमसज्झं, कज्जं सज्झं तु साहए मतिमं ।
अविसज्झं साधेतो, किलिस्सति ण तं च साधेति॥ कहा जाता है-कार्य के दो प्रकार है-साध्य और असाध्य। मतिमान् व्यक्ति साध्य कार्य को ही सिद्ध करता है। जो असाध्य कार्य को सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, वह क्लेश को प्राप्त होता है और कार्य भी सिद्ध नहीं होता। ५२८०.जति एयविप्पहूणा, तव-णियमगुणा भवे निरवसेसा।
__ आहारमादियाणं, को नाम कहं पि कुव्वेज्जा। यदि इन आहार आदि के झंझटों से सर्वथा मुक्त हो जाएं और निरवशेषरूप से तप, नियम आदि के गुणों की साधना में लग जाएं तो आहार आदि की कथा ही कौन करेगा? कौन इसके झंझट में फंसेगा? ५२८१.मोक्खपसाहणहेतू, णाणाती तप्पसाहणो देहो।
देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो॥ मोक्ष की साधना के हेतु हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र। उनका प्रसाधक है शरीर। देह के लिए आहार किया जाता है। इसलिए उसके ग्रहणकाल और धार्यमाण का काल अनुज्ञात है। ५२८२.काले उ अणुण्णाए, जति वि हु लग्गेज्ज तेहिं दोसेहिं।
सुद्धो वुवादिणंतो, लग्गति उ विवज्जए परेणं॥ भक्तपान का धारणकाल अर्थात् दिन के प्रथम तीन प्रहर जो अनुज्ञात है, यदि उस काल में पूर्वोक्त दोष लगते हैं, फिर भी वह शुद्ध है। अनुज्ञात काल का अतिक्रमण करता है वह अविद्यमान दोषों में भी प्रायश्चित्तभाक् होता है। ५२८३.पढमाए गिण्हितूणं, पच्छिमपोरिसि उवादिणति जो उ।
ते चेव तत्थ दोसा, बितियाए जे भणिय पुव्विं॥ प्रथम पौरुषी में भक्तपान ग्रहण करके पश्चिम पौरुषी का अतिक्रमण करता है, उसमें भी वे ही दोष होते हैं जो जिनकल्पी मुनि के प्रथम प्रहर में ग्रहण कर द्वितीय पौरुषी का अतिक्रमण करने पर होते हैं। ५२८४.सज्झाय-लेव-सिव्वण-भायणपरिकम्म-सट्टरादीहिं ।
सहस अणाभोगेण व, उवादियं होज्ज जा चरिमं। स्वाध्याय में लीन होने पर, लेप परिकर्म करते हुए, वस्त्रों को सीते हुए, भाजन का परिकर्म करते हुए, सट्टरआलजाल कथाएं कहते हुए आदि आदि कार्यों में जो अत्यंत व्यग्रता होती है, वह है सहसाकार तथा अत्यंत विस्मृति । इस सहसाकार या अनाभोग-अत्यंत विस्मृति से चरम पौरुषी भी अतिक्रान्त हो जाती है। ५२८५.आहच्चुवाइणाविय, विगिंचण परिण्णऽसंथरंतम्मि।
अन्नस्स गेण्हणं भुंजणं च असतीए तस्सेव।
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