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चौथा उद्देशक
स्वभाववाली होती है, इसलिए उसका निर्देश पहले किया गया है ।
५२३८. वइणि त्तिणवरि णेम्मं,
अण्णा विण कप्पती सुविहियाणं । अवि पजाती आलिंगिडं पि
किमु ता पलिस्सइडं ॥ प्रस्तुत सूत्र में जो व्रतिनी-निर्ग्रन्थी का उल्लेख किया गया है, वह 'नेम' चिह्न उपलक्षण मात्र है । सुविहित मुनियों को दूसरी स्त्री का आलिंगन करना भी नहीं कल्पता । इसीको स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पशुजाति की स्त्री का भी आलिंगन करना नहीं कल्पता तो फिर मनुष्य स्त्री के परिष्वंग की तो बात ही क्या ?
५२३९. निम्मंथो निम्गंथिं, इत्थि गित्वं च संजयं चेव ।
पलिसयमाणे गुरुगा, दो लहुगा आणमादीणि ॥ निर्यन्य निर्ग्रन्थी का आलिंगन करता है तो चतुर्गुरु तप और काल से गुरु, स्त्री का आलिंगन करता है तो वही प्रायश्चित्त तपस्या से गुरु, गृहस्थ का आलिंगन करता है तो चतुर्लघु काल से गुरु, संयत का आलिंगन करता है तो चतुर्लघु तप और काल से लघु । सर्वत्र आज्ञाभंग आदि दूषण होते हैं। ५२४०. निग्गंधी श्री गुरुगा,
गिहि पासंडि समणे व चउलहुगा । दोहि गुरु तवगुरुगा,
कालगुरू दोहि वी लहुगा ॥ निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी का आलिंगन करता है तो चतुर्गुरु दोनों तप और काल से गुरु, स्त्री का आलिंगन करने पर वही दोनों से गुरु, गृहस्थ का आलिंगन करने पर चतुर्लघु कालगुरु, पाषंडी पुरुष या श्रमण का आलिंगन करने पर चतुर्लघु, दोनों से लघु ।
५२४१. मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फास भावसंबंधो
आतंको दोह भवे, गिहिकरणे पच्छकम्मं च ॥ निर्ग्रन्थ को निर्ग्रन्थी का आलिंगन करते देखकर मिथ्यात्व का प्रसार होता है, प्रवचन का उड्डाह होता है, विराधना होती है, दोनों के परस्पर स्पर्श से भाव संबंध स्थापित हो जाता है। दोनों के कोई रोग हो तो एक दूसरे में संक्रामित हो जाता है। गृहस्थ का आलिंगन करने से पश्चात्कर्म का दोष हो सकता है।
५२४२. कोड खाए कच्छु जरे, अवरोप्पर संकमंते चडभंगो। इत्थीणाति सुहीण य अचियत्तं गिण्हणादीया ॥ कुष्ठ, खांसी, खुजली, ज्वर आदि रोग परस्पर संक्रामित होते हैं। इसकी चतुर्भगी यह है
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१. निर्ग्रन्थ संबंधी रोग निर्ग्रन्थी में संक्रमित हो जाते हैं। २. निर्ग्रन्थी संबंधी रोग निर्ग्रन्थ में संक्रमित हो जाते हैं। ३. दोनों के रोग एक दूसरे में संक्रमित हो जाते हैं। ४. दोनों के रोग एक दूसरे में संक्रमित नहीं होते। स्त्री के ज्ञातिजनों या सुहृद् व्यक्तियों के मन में यह अप्रीति उत्पन्न होती है कि यह श्रमण हमारी संबंधीनी स्त्री का इस प्रकार आलिंगन कर रहा है। वे उस श्रमण का ग्रहण- आकर्षण आदि करते हैं। ५२४३. गिहिएसु पच्छकम्मं भंगो ते चेव रोगमादीया । संजय असंखडादी, भुत्ता ऽभुते य ममणादी ॥ गृहस्थों के साथ आलिंगन करने से पश्चात्कर्म दोष होता है, वे स्नान आदि करते हैं। स्त्री के साथ आलिंगन करने से व्रत की विराधना होती है, रोग आदि का संक्रमण होता है। संयत के साथ आलिंगन करने से कलह आदि दोष होते हैं। यह देखकर भुक्तभोगी तथा अभुक्तभोगी का प्रतिगमन हो सकता है।
५२४४. एमेव गिलाणाए, सुत्तऽफलं कारणे तु जयणाए ।
कारणे एग गिलाणा, गिहिकुल पंथे व पत्ता वा ॥ इसी प्रकार ग्लान संयती का आलिंगन करने पर वे ही दोष होते हैं। शिष्य ने कहा- यदि ऐसा हो तो फिर सूत्र अफल हो जाएगा। आचार्य ने कहा- कारण में यतनापूर्वक आलिंगन करने में सूत्र का अवतरण है कारण में कोई संयती अकेली हो गई। वह गृहस्थकुल की निश्रा में रह रही है अथवा उसके निजी व्यक्ति-बहिन आदि उसके पास दीक्षित हो गए। वह मार्ग में या विवक्षित गांव को प्राप्त कर ग्लान हो गई।
५२४५. माता भगिणी धूता, तथैव सण्णातिगा य सङ्घीय
गारत्थि कुलिंगी वा असोय सोए य जयणाए । ५२४६. एयासिं असतीप, अगार सण्णाय णालबद्धो य
समणो वऽनालबद्धो, तस्सऽसति गिही अवयतुल्लो ॥ उस समय उस संयती की माता, भगिनी या पुत्री (जो दीक्षित है) उसको उठाती है, सुलाती है अथवा उसकी भानजी, पौत्री आदि या कोई श्राविका अथवा स्त्री अथवा कुलिंगिनी सारा कार्य करती है। उनमें भी प्राथमिकता है अशौचवादिनी को और फिर शौचवादिनी को इन स्त्रियों के अभाव में जो गृहस्थ उस संयती का स्वजन हो, नालबद्ध-पिता, भ्राता पुत्र आदि हो वह उसको उठाना बिठाना आदि करता है। उनके अभाव में नालबद्ध श्रमण उसके अभाव में असमानवयवाला अनालबद्ध श्रमण भी वे सारे कार्य करता है।
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