________________
५४०
बृहत्कल्पभाष्यम् यह अनुमत है कि विपक्ष के अर्थ की सिद्धि बिना कहे भी, अर्थापत्ति से हो जाती है, फिर भी विपक्ष की बात बताई है। यह कालिकश्रुत की धर्मता है, स्वभाव है, शैली है कि अर्थापत्ति से उपलब्ध अर्थ भी साक्षात् कहा जाता है। ५२३५.ववहार णऽत्थवत्ती, अणप्पिएण य चउत्थभासाए।
मूढणय अगमितेण य, कालेण य कालियं नेयं॥ व्यवहारनय के मत से कालिकश्रुत में अर्थापत्ति नहीं होती। कालिकश्रुत अनर्पित-विषय विभाग रहित होता है। यह चौथी भाषा-असत्यामृषा में निबद्ध होता है। कालिकश्रुत मूढनय अर्थात् नयविभाग से अव्यवस्थापित नय वाले होते हैं, तथा जो गमिक-सदृशपाठ वाले नहीं होते तथा जो काल से प्रतिबद्ध होते हैं। गिलायमाण-पदं
निग्गंथिं च णं गिलायमाणिं पिता वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं॥
(सूत्र १०) निग्गंथं च णं गिलायमाणं माया वा भगिणी वा धूया वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं॥
(सूत्र ११)
व्युद्ग्राहित है यह हितकारी व्यक्तियों के हितयुक्त वचनों को भी नहीं जानता। ५२२९.रायकुमारो वणितो, एते मूढा कुला य ते दो वि।
वुग्गाहिया य दीवे, सेलंधल-भच्चए चेव॥ उपरोक्त कथानकों में कौन मूढ़ है और कौन व्युद्ग्राहित- यह ज्ञातव्य है-माता में आसक्त राजकुमार, घटिकावोद्राख्य नाम का वणिक, सेनापति और महत्तर के कुल-ये मूढ़ के उदाहरण हैं। द्वीपजात, पंचशैलस्वर्णकार, भच्चक-स्वर्णकार का भागिनेय-ये व्युग्राहित के उदाहरण हैं। ५२३०.मोत्तूण वेदमूढं, अप्पडिसिद्धा उ सेसका मूढा। ___वुग्गाहिता य दुट्ठा, पडिसिद्धा कारणं मोत्तुं॥
वेदमूढ़ को छोड़कर, शेष जो मूढ़ हैं-द्रव्यमूढ़, क्षेत्रमूढ़ आदि-ये प्रव्रज्या के लिए अप्रतिषिद्ध हैं, इनको दीक्षा दी जा सकती है। जो व्युद्ग्राहित और दुष्ट-कषायदुष्ट आदि हैं, कोई कारण को छोड़कर प्रतिषिद्ध हैं। कारण होने पर उन्हें प्रव्रजित किया जा सकता है। ५२३१.ज तेहिं अभिग्गहियं, आमरणंताए तं न मुंचंति।
सम्मत्तं पि ण लग्गति, तेसिं कत्तो चरित्तगुणा॥ __ व्युद्ग्राहित आदि व्यक्तियों ने जो स्वीकार कर लिया, उसे वे आमरणांत नहीं छोड़ते। इस प्रकार उनमें सम्यक्त्व भी नहीं होता तो फिर उनमें चारित्रगुण कैसे हो सकते हैं? ५२३२.सोय-सुय-घोररणमुह-दारभरण-पेयकिच्चमइएसु । सग्गेसु
देवपूयण-चिरजीवण-दाणदिवेंसु॥ ५२३३.इच्चेवमाइलोइयकुस्सुइवुग्गाहणाकुहियकन्ना । __फुडमवि दाइज्जंतं, गिण्हंति न कारणं केई॥
कुछेक व्यक्तियों के अंतःकरण स्वर्ग आदि से भावित होते हैं। वे मानते हैं-शौच रखने से, पुत्र को उत्पन्न करने से, घोरसंग्राम के मोर्चे पर जाने से, धर्मपत्नी का पोषण करने से, पिंड दान आदि प्रत्यकर्म से, वैश्वानरदेव की पूजा करने से, चन्द्रसहस्र आदि रूप चिरकाल तक जीने से, गाय और जमीन का दान देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस प्रकार की लौकिक कुश्रुति की व्युद्ग्राहणा से कुथित कान वाले वे लोग स्फुटरूप से दृश्यमान कारण को भी स्वीकार नहीं करते।
तओ ससण्णप्पा पण्णत्ता, तं जहा-अदुढे अमूढे अवुग्गाहिए।
हा
५२३६.उवहयभावं दव्वं, सच्चित्तं इति णिवारियं सुत्ते।
भावाऽसुभसंवरणं, गिलाणसुत्ते वि जोगोऽयं॥ ___ सचित्त द्रव्य (मनुष्य आदि) जो उपहतभाव-दूषित परिणाम वाला है, उसकी प्रव्रज्या की पूर्वसूत्र में वर्जना की है। प्रस्तुत ग्लानसूत्र में भी अशुभ भावों के संवरण की बात है। यह योग है, संबंध है। ५२३७.कामं पुरिसादीया, धम्मा सुत्ते विवज्जतो तह वि।
दुब्बल-चलस्सभावा, जेणित्थी तो कता पढमं॥ यह अनुमत है कि धर्म पुरुषमुख्य होते हैं। फिर भी सूत्र में विपर्यास किया गया है। स्त्री धृतिदुर्बल और चंचल
(सूत्र ९)
५२३४.कामं विपक्खसिद्धी, अत्थावत्तीइ होतऽवुत्ता वि।
तह वि विवक्खो वुच्चति, कालियसुयधम्मता एसा॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org