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बृहत्कल्पभाष्यम् हैं, अहो! अब हम भी ऐसे ही बनें। इस प्रकार दुर्विनय दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित-इन तीन पदों की में प्रवर्तमान उनके द्वारा इहलोक-परलोक-दोनों परित्यक्त अष्टिका भजना होती है, आठ भंग होते हैं। प्रथम भंग होते हैं। इससे अनवस्था होती है। कोई विनय आदि में प्रथम सूत्र तथा चरम भंग (आठवें भंग में) दूसरा सूत्र नहीं करता।
आता है। ५२१०.अद्भाण-ओमादि उवग्गहम्मि,
५२१४.दव्व दिसि खेत्त काले,गणणा सारिक्ख अभिभवे वेदे। वाए अपत्तं पि तु वट्टमाणं। बुग्गाहणमन्नाणे, कसाय मत्ते य मूढपदा॥ वुच्छिज्जमाणम्मि व संथरे वी,
मूढ़ पद के आठ निक्षेप ये हैं-द्रव्यमूढ़, दिग्मूढ़, क्षेत्रमूढ़,
कालमूढ़, गणनामूढ, सादृश्यमूढ़, अभिभवमूढ़ और वेदमूढ़। इनका अपवादपद यह है-मार्ग में, अवमौदर्य आदि व्युद्ग्राहणामूढ़, अज्ञान (मिथ्याज्ञान) मूढ, कषायमूढ़, परिस्थितियों में जो व्यक्ति गण के लिए उपकारी होता है, वह मत्तमूद-ये भी मूढ़पद होते हैं। अपात्र हो तो भी वह वाचनीय है। उस आचार्य के पास कोई ५२१५.धूमादी बाहिरतो, अंतो धत्तूरगादिणा दव्वे। अपूर्वश्रुत है, पात्र शिष्य नहीं मिल रहा है, बिना संक्रामित
जो दव्वं व ण जाणति, घडिगावोद्दो व्व दिलृ पि॥ किए वह अपूर्वश्रुत व्यवच्छिन्न हो जाएगा, तब न चाहते हुए जो बाह्य अथवा आभ्यन्तर द्रव्य में मोहित होता है वह है भी अपात्र को वाचना दी जा सकती है। अथवा उसके सिवाय द्रव्यमूढ़। जो बाह्य अर्थात् धूम आदि द्रव्य से आकुलित कोई अन्य शिष्य नहीं है, यह सोचकर उस अपात्रभूत शिष्य होकर जो मोहित होता है, जो अभ्यन्तर धत्तूर-कोद्रव आदि को भी वाचना दे।
के भोग से आकुलित होता है, वह है द्रव्यमूढ़। अथवा जो
पूर्वदृष्ट द्रव्य को कालान्तर में नहीं जानता वह है द्रव्यमूढ़। दुसण्णप्प-सुसण्णप्प-पदं
यहां घटिकावोद्र नाम के वणिक् का दृष्टांत है
५२१६.दिसिमूढो पुव्वाऽवर, मण्णति खेत्ते तु खेत्तवच्चासं। तओ दुस्सण्णप्पा पण्णत्ता, तं
दिव-रातिविवच्चासो, काले पिंडारदिलुतो॥ जहा-दुढे मूढे वुग्गाहिए॥
दिग्मूढ पुरुष दिशाओं में मूढ़ होता है। वह दिशाओं को (सूत्र ८) विपरीत समझता है-पूर्व को पश्चिम और पश्चिम को पूर्व।
क्षेत्रमूढ़-क्षेत्र को नहीं जानता अथवा विपरीत जानता है। ५२११.सम्मत्ते वि अजोग्गा,
कालमूढ़-रात को दिन और दिन को रात मानता है। यहां किमु दिक्खण-वायणासु दुट्ठादी। पिंडार का दृष्टांत हैदुस्सन्नप्पारंभो,
५२१७.ऊणाधिय मन्नतो, उट्टारूढो व गणणतो मूढो। मा मोह परिस्समो होज्जा॥
सारिक्ख थाणु पुरिसो, कुडुबिसंगामदिर्सेतो॥ दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित ये तीनों सम्यक्त्व ग्रहण के गणनामूद जैसे ऊंट पर चढ़ा हुआ पुरुष गिनते समय लिए भी अयोग्य होते हैं तो प्रव्रज्या, वाचना के योग्य कैसे हो कम या अधिक गिनता है। सादृश्यमूढ़-जैसे स्थाणु को सकते हैं? इसलिए उनके प्रज्ञापन में प्रज्ञापक का परिश्रम पुरुष मानता है। इसमें कुटुम्बी-महत्तर और सेनापति के निष्फल न हो, इसलिए दुःसंज्ञाप्य सूत्र का आरंभ किया। संग्राम का दृष्टांत है। जाता है।
५२१८.अभिभूतो सम्मुज्झति, ५२१२.दुस्सन्नप्पो तिविहो, दुट्ठाती दुट्ठो वण्णितो पुब्विं।
सत्थ-ऽग्गी-वादि-सावयादीहिं। मूढस्स य निक्खेवो, अट्ठविहो होइ कायव्वो॥ अब्भुदय अणंगरती, दुःसंज्ञाप्य तीन होते हैं-दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित। दुष्ट
वेदम्मि तु रायदिटुंतो॥ का वर्णन पूर्वसूत्रों में किया जा चुका है। मूढ़ के आठ प्रकार शस्त्र, अग्नि, वादी या श्वापदों आदि से अभिभूत होने का निक्षेप है।
पर जो सम्मोहित होता है वह है-अभिभवमूढ़। जो अभ्युदय ५२१३.दुढे मूढे वुग्गाहिए य भयणा उ अट्ठिया होइ। अर्थात् प्रबल वेदोदय के कारण अनंगक्रीड़ा करता है वह है
पढमगभंगे सुत्तं, पढमं बिइयं तु चरिमम्मि॥ वेदमूढ़। यहां राजा का दृष्टांत है। १-४. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १२०-१२३।
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