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तीसरा उद्देशक =
४७५ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा गया हो अथवा पूर्वोक्त कार्यों के उपस्थित होने पर विकरण न सागारियसंतियं सेज्जा-संथारयं आयाए
करे। विकरण न करने पर भी वह शुद्ध है। अविकरणं कट्ट संपव्वइत्तए।
इह खल निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा (सूत्र २६)
पाडिहारिए वा सागारियसंतिए वा
सेज्जासंथारए विप्पणसेज्जा, से य ४६१०.संथारगअहिगारो, अहवा पडिहारिगा उ सागारी।
अणुगवेसियव्वे सिया। से य नीहारिमो अणीहारिमो य इति एस संबंधो॥ __ प्रस्तुत सूत्र का संबंध-यह संस्तारक का अधिकार
अणुगवेस्समाणे लभेज्जा, तस्सेव अनुवर्तित हो रहा है। अतः यह भी संस्तारक सूत्र है। अथवा
पडिदायव्वे सिया। से य अणुगवेस्समाणे पूर्वसूत्र में प्रातिहारिक संस्तारक का कथन था, प्रस्तुत सूत्र नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ दोच्चं पि में सागारिकसत्क का संस्तारक कथित है। अथवा दो प्रकार ओग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं का संस्तारक होता है-निर्हारिम और अनि रिम। प्रस्तुत
परिहरित्तए॥ सूत्र का पूर्वसूत्र से यह संबंध है।
(सूत्र २७) ४६११.सागारिसंति विकरण, परिसाडिय अपरिसाडिए चेव।
तम्मि वि सो चेव गमो, पच्छित्तुस्सग्ग-अववाए॥ ४६१५.दोण्हेगयरं नटुं, गवेसियं पुव्वसामिणो देति। सागारिकसत्क संस्तारक को ग्रहण कर वहां से प्रस्थान
अपमादट्ठा अहिए, हिए य सुत्तस्स आरंभो॥ करते समय उसको बिखेर देना चाहिए। वह दो प्रकार का मुनि दो संस्तारक लाए। उसमें से एक कोई ले गया। होता है-परिशाटी और अपरिशाटी। उस संस्तारक के विषय मुनि ने गवेषणा की। वह प्राप्त हो गया। मुनि ने उसे पूर्वस्वामी में भी वही पूर्वोक्त विकल्प है। तथा प्रायश्चित्त, उत्सर्ग और को सौंप दिया। अतः अहत-अनष्ट, या हृत, फिर भी अपवाद भी पूर्वोक्त ही हैं।
अप्रमाद के लिए गवेषणा समाचारी करनी चाहिए, इसलिए ४६१२.किड्ड तुअट्टण बाले, णयणे डहणे य होइ तह चेव।। इस सूत्र का प्रारंभ किया गया है।
- विकरण पासुद्धं वा, फलग तणेसुं तु साहरणं॥ ४६१६.संथारो नासिहिती, वसहीपालस्स मग्गणा होति।
वह बालकों द्वारा खेलने, सोने, अन्यत्र ले जाने, जलाने सुन्नाई उ विभासा, जहेव हेट्ठा तहेव इहं॥ में पूर्वोक्त दोष होते हैं, इसलिए उसको बिखेर देना चाहिए। संस्तारक कोई ले न जाए इसलिए वसति को सर्वथा विकरण करना अर्थात् फलक को एक पार्श्व में रखना या शून्य न करने के लिए वसतिपाल की मार्गणा होती है। उसको खड़ा कर देना, तृणों का संहरण करना, कम्बिकाओं पीठिका गाथा ५४२ में 'सुन्ने बाल गिलाणे' में जो व्याख्या के बंधन को तोड़ना। यह विकरण है।
की है, वही व्याख्या यहां भी जाननी चाहिए। ४६१३.पुंजे वा पासे वा, उवरिं पुंजेसु विकरण तणेसु। ४६१७.पढमम्मि य चउलहुगा, सेसेसुं मासियं तु नाणत्तं। ___फलगं जत्तो गहियं, वाघाए विकरणं कुज्जा॥ दोहि गुरू एक्केणं, चउथपदे दोहि वी लहुगा॥
जो तृण जिस पुंज से आनीत हैं, उनको उसी पुंज में रखें, वसति को शून्य करने पर प्रथम स्थान में चतुर्लघुक का जो पार्श्व से आनीत हैं, उनको पार्श्व में रखें, फलक जहां से प्रायश्चित्त है। और यदि वसतिपाल के रूप में बाल, ग्लान लाया है वहां ले जाकर स्थापित करे, कंबिकाओं का भी या अव्यक्त मुनि को स्थापित करे तो प्रत्येक के मासलघु का बंधन तोड़कर जहां से लाया है, वहीं रखे। यदि कोई व्याघात । प्रायश्चित्त है। बालस्थापन में तपसा गुरुक और ग्लानस्थापन हो तो वैसा न कर सकने पर स्थान पर ही संस्तारक को में कालगुरुक, चतुर्थपद-अव्यक्त स्थापन में दोनों-तप और रखकर नियमपूर्वक विकरण करे।
काल से लघुक-यह सारा मूल प्रायश्चित्त के साथ जुड़ेगा। ४६१४.बितियमहसंथडे वा, देसुट्ठाणादिसू व कज्जेसु। ४६१८.मिच्छत्त-बडुग-चारण-भडाण ... एएहिं कारणेहि, सुद्धो अविकरणकरणे वि॥
मरणं तिरिक्ख-मणुयाणं। अपवादपद में यथासंस्तृत का विकरण न करे। यथा
आएस बाल निक्केयणे संस्तृत का अर्थ है-निष्प्रकंप चंपकपट्ट आदि। देश उजड़
य सुन्ने भवे दोसा॥
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