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तीसरा उद्देशक
४७८५ तं वयणं सोऊणं, देविंदो बंदिऊण तित्थयरं । वितरति अप्पणगे उग्गहम्मि जं साहुपाउम्मं ॥ भगवान् के अवग्रह प्रतिपादक वचन को सुनकर देवेन्द्र ने तीर्थंकर को वन्दना कर अपने अवग्रह में जो साधुओं के प्रायोग्य सारा भक्तपान वितरण करता है अर्थात् उसकी अनुज्ञा देता है।
४७८६. सोउं तुट्ठो भरहो, लद्धो मए एत्तिओ इमो लाभो ।
वितरति जं पाउग्गं, केवलकप्पम्मि भरहम्मि ॥ भगवान् के वचन सुनकर भरत तुष्ट हुआ और सोचा- अहो! मैंने इतना लाभ कमाया है। साधुओं के लिए प्रायोग्य भक्तपान को उसने संपूर्ण भरत में वितरित किया।
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४७८७. पंचविहम्मि परूविते, स उग्गहो जाणएण घेत्तव्वो । अण्णाणेणोगहिए, पायच्छित्तं भवे भवे तिविहं ॥ ४७८८. इक्कड कठिणे मासो, चाउम्मासा य पीढ फलएसु क- कलिंचे पणगं, छारे तह तह मल्लगाईसु ॥ पांच प्रकार के अवग्रह की प्ररूपणा करने पर भी उस उस अवग्रह को जानकर ग्रहण करना चाहिए। जो अज्ञानवश ग्रहण करता है उसको तीन प्रकार के प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं।
से अणुकुडेसु वा अणुभित्तीसु वा अणुचरियासु वा अणुफरिहासु वा अणुपंथेसु वा अणुमेरासु वा सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइअहालंदमवि ओग्गहे ॥
(सूत्र ३२)
४७८९. जे चेव दोन्नि पगता, सागारिय रायउग्गहा होंति ।
तेसिं इह परिमाणं णिवोम्गहम्मी विसेसेणं ॥ इक्कडमय तथा कठिनमय संस्तारक ग्रहण करने पर लघुमास पीढफलक के चार लघुमास और काष्ठ, किलिञ्च, क्षार तथा मल्लक को ग्रहण करने पर पंचक ये प्रायश्चित्त आते हैं।
४७९०. अणुकुड्डे भित्तीसुं, चरिया पागारपंथ परिहासु । अणुमेरा सीमाए णायव्यं जं जहिं कमति ॥ जो दो प्रकार के अवग्रह - सागारिक अवग्रह और राज अवग्रह पूर्वसूत्र में कहे गए हैं, उन्हीं का परिमाण प्रस्तुत सूत्र
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में कहा गया है। उसमें भी नृप के अवग्रह का परिमाण विशेषरूप से कहा है ।
अनुकुड्य, अनुभित्ती,
अनुचरिका, अनुप्राकारपथ, अनुपरिखा । अनुमेरा का अर्थ है-मर्यादा, सीमा । अनुमर्यादा अर्थात् सीमा में। इससे ज्ञातव्य है कि सागारिक और राज अवग्रह की सीमा होती है।
४०९१. अणुकुद्धं उवकुद्धं, कुसमीवं व होइ एगद्वं ।
एमेव सेसएस वि, तेसि पमाणं इमं होइ ॥ अनुकुडब, उपकुडय, कुडवसमीप-ये एकार्थक हैं। इसी प्रकार अनुभित्ति आदिपदों में जाननी चाहिए। उन अनुकुड्य आदि का अवग्रह विषयक प्रमाण यह होता है। ४७९२. वति भित्ति कडगकुडे, पंथे मेराय उग्गहो रयणी ।
अणुचरियाए अनु उ चउरो रयणीउ परिहाए ॥ वृति ( बाड़), भित्ति, कटकमयीकुड्य तथा मार्गगत मर्यादा में एक हाथ प्रमाण का अवग्रह होता है। अनुचरिका में आठ हाथ का और परिखा में चार हाथ का अवग्रह होता है।
४७९३. वतिसामिणो वतीतो हत्थो सेसोग्गहो णरवतिस्स । तस्स तहिं ममकारो, जति वि य णिम्माणि जा भूमी ॥ वृति का जो स्वामी है उसकी वृति के आगे हाथ प्रमाण का अवग्रह होता है। शेष सारा अवग्रह राजा का होता है। इसका कारण है कि उस गृहपति का वृति के आगे हाथ प्रमाण भूभाग पर उसका ममत्व होता है। यद्यपि विवक्षितगृह तक ही उसकी भूमी, फिर भी वृति के आगे एक हाथ प्रमाण तक उसका अवग्रह होता है।
४७९४. हत्थं हत्थं मोत्तुं, कुड्डादीणं तु मज्झिमो रण्णो ।
जत्य न पूरइ हत्थो, मज्झे तिभागो तहिं स्त्रो ।। उन कुड्य आदि के दोनों घरों के बीच एक-एक हाथ भूभाग को छोड़ने पर मध्यगत सारा भूभाग राजा का अवग्रह होता है। जहां एक हाथ पूरा नहीं होता वहां मध्यगत तीनभाग राजा का अवग्रह और शेष दो भाग दो गृहस्वामियों का अवग्रह होता है। यह अवग्रह का परिमाण कहा गया है। (यदि उच्चार आदि तथा स्थान निषदन आदि कुड्य आदि के हस्ताभ्यन्तर में किया लाता है तो वह गृहपति के अवग्रह में है। हाथ से बाहर चरिका, प्राकार, परिखा आदि में किया जाता है तो वहां राज अवग्रह की अनुज्ञा लेनी होती है। अटवी में भी यदि वह राज्य के अधीन हो तो वहां राज अवग्रह और यदि राजा का न हो तो वह देवेन्द्र अवग्रह के अन्तर्गत है ।)
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