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बृहत्कल्पभाष्यम् ४९३१.पढमाए पोरिसीए, बितिया ततियाए तह चउत्थीए। उनके प्रायश्चित्त है मासिकगुरु और स्थविर पिता को भी जो
मूलं छेदो छम्मासमेव चत्तारि या गुरुगा॥ पुत्र के साथ सज्ञातिक गांव में जाता है, उसके भी _इस दुर्बल स्थिति का शिकार होकर कोई मुनि हस्तकर्म मासिकगुरु का प्रायश्चित्त है। करता है। उसका प्रायश्चित्त विधान इस प्रकार है-प्रथम ४९३६.संघाडगादिकहणे, जंकत तं कत इयाणि पच्चक्खा। प्रहर में हस्तकर्म करता है तो मूल, दूसरे प्रहर में छेद, अविसुद्धो दुट्ठवणो, ण समति किरिया से कायव्वा।। तीसरे प्रहर में छह मास, चौथे प्रहर में चार गुरुमास।
अपने संघाटक के संतों को या दूसरों को यह कहने पर ४९३२.निसि पढमपोरिसुब्भव, अदढधिती सेवणे भवे मूलं। कि मैंने हस्तक का सेवन किया है और वे यदि कहें जो
पोरिसिपोरिसिसहणे, एक्केक्कं ठाणगं हसइ॥ किया वह कर डाला, अब भक्तप्रत्याख्यान करो। सातवां रात्री के प्रथम प्रहर में यदि अदृढ़ धृति वाले मुनि के कहता है-'दुष्टवण' छेदन की क्रिया के बिना ठीक नहीं होता मोहोद्भव हो जाए और वह हस्तकर्म का सेवन करता है तो अतः तुम उसकी क्रिया करो। मोहोदय के व्रण के उपशमन उसे मूल, प्रथम प्रहर में सहन कर दूसरे प्रहर में हस्तकर्म के लिए अवमौदर्य, निर्विकृतिका क्रिया करो। का सेवन करने पर छेद, तीसरे प्रहर में सेवन करने पर छह ४९३७.पडिलाभणा उ सड्डी, कर सीसे वंद ऊरु दोच्चंगे। मास और तीन प्रहर तक सहन कर चौथे प्रहर में सेवन करने
सूलादिरुयोमज्जण, ओअट्टण सड्डिमाणेमो॥ पर चार गुरुकमास का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार एक- आठवें मुनि ने कहा-किसी श्राविका को ले आओ। वह एक प्रहर को सहने से एक-एक प्रायश्चित्तस्थान कम होता प्रतिलाभना करेगी। तब उसके दोनों ऊरु पात्र में स्थित होने जाता है।
पर यथाभाव से उन्हें मोड़ने पर ऊरु के मध्य से द्वितीय अंग ४९३३.बितियम्मि वि दिवसम्मि,पडिसेवंतस्स मासियं गुरु। आदि नीचे गिरता है। तब वह श्राविका हाथ से मुनि का
छडे पच्चक्खाणं, सत्तमए होति तेगिच्छं।। स्पर्श करती है और सिर से वंदना करती हुई पैर छूती है। __यदि प्रथम रात्री में सहन कर दूसरे दिन हस्तकर्म का उससे मुनि स्खलित हो जाता है, उसके वीर्यपात हो जाता सेवन करने पर मासगुरुक का प्रायश्चित्त है। उससे आगे है। नौवां मुनि कहता है-शूल आदि या अन्य फोड़ा आदि होने सर्वत्र मासगुरुक का ही प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त में कमी पर श्राविका बुलाई जाती है। वह फोड़े का परिमार्जन आदि नहीं होती। किसी के समक्ष वह आलोचना करे, यही करती है, वह गाढ़कर परिमार्जन करती है। उससे बीजप्रायश्चित्त आता है। छठा मुनि उसे कहता है-अब तुम भक्त- निसर्ग हो जाता है। प्रत्याख्यान अंगीकार करो। सातवां कहता है-इस मोहोदय ४९३८.सन्नायपल्लि णेहिं (णं),मेहणि खुडंत णिग्गमोवसमो। की चिकित्सा है-अवमौदर्य और निर्विकृतिक।
अविधितिगिच्छा एसा, आयरिकहणे विधिक्कारो॥ ४९३४.पडिलाभणऽट्ठमम्मिं, णवमे सड्डी उवस्सए फासे। दसवां मुनि मोहोदय से ग्रस्त मुनि के पिता को कहता
दसमम्मि पिता-पुत्ता, एक्कारसमम्मि आयरिए॥ है-तुम अपने पुत्र को सज्ञातकग्राम में ले जाओ और वहां आठवां साधु प्रतिलाभना उपदेश देता है। नौवां मुनि मैथुनिका-मामे की पुत्री के साथ क्षुल्लक मुनि को स्पर्श कहता है-किसी श्राविका को प्रतिश्रय में लाया जाए और वह आदि से क्रीड़ा करने को प्रेरित करो। उससे वीर्यपात होगा तुम्हारे शरीर का स्पर्श करे। दसवां मुनि कहता है-तुम और मोह का उपशम हो जाएगा। यह सारी अविधि पिता-पुत्र हो। अपने सज्ञातिक गांव में जाकर चिकित्सा चिकित्सा है। आचार्य को कहो और वे जो कहे उस विधि से कराओ। ग्यारहवां मुनि कहता है-जो आचार्य कहें वैसे करो। चिकित्सा करो। यह ग्यारहवें साधु का विधि-कथन है, यह यह शुद्ध है। शेष के लिए प्रायश्चित्त कहा है।
उपयुक्त है। ४९३५.छट्टो य सत्तमो या, अहसुद्धा तेसि मासियं लहुयं। ४९३९.सारुवि गिहत्थ (मिच्छे), . उवरिल्ल जं भणंती, थेरस्स वि मासितं गुरुगं।
परतित्थिनपुंसगे य सूयणया। छठा और सातवां मुनि यथाशुद्ध हैं। वे दोषयुक्त उपदेश चउरो य हुंति लहुगा, नहीं देते। वे गुरु के उपदेश के बिना स्वेच्छा से कुछ कहते हैं
पच्छाकम्मम्मि ते चेव॥ इसलिए उन्हें मासिकलघु का प्रायश्चित्त है। इनसे उपरितन कोई कहता है-सारूपिक (सिद्धपुत्र) जो नपुंसक हो अर्थात् आठ, नौ और दशवें मुनि सदोष उपदेश देते हैं, अतः उससे हस्तकर्म कराओ। कोई कहता है-गृहस्थनपुंसक से, १. देखें गाथा ४९३७।
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