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=बृहत्कल्पभाष्यम्
आसिक्त अर्थात् सापत्य-जिसके बच्चा पैदा होता है। उपसिक्त वह होता है जो सन्तान के उत्पादन में असमर्थ होता है। ५१५२.पुट्विं दुच्चिण्णाणं, कम्माणं असुभफलविवागणं।
तो उवहम्मइ वेओ, जीवाणं पावकम्माणं॥ पहले किए हुए दुश्चीर्ण कर्मों के अशुभफलविपाक से जीवों के पापकर्मों के कारण वेद का उपहनन हो जाता है। ५१५३.जह हेमो उ कुमारो, इंदमहे भूणियानिमित्तेणं।
मुच्छिय गिद्धो य मओ, वेओ वि य उवहओ तस्स॥ जैसे हेमनामक कुमार इन्द्रमह में गया। वहां उसने अनेक रूपवती बालिकाओं को देखा। उनके निमित्त से वह मूर्च्छित हो गया और अत्यन्त आसक्ति के कारण वह मर गया। उसका वेद भी उपहत हो गया। ५१५४.उवहय उवकरणम्मि, सेज्जायरभूणियानिमित्तेणं।
तो कविलगस्स वेओ, ततिओ जाओ दुरहियासो॥ शय्यातर की लड़की के निमित्त से कपिल का उपकरण अर्थात् अंगादान-लिंग छिन्न हो गया। उसके कारण उसके दुःसह्य तीसरे वेद (नपुंसक वेद) का उदय हो गया।२ (उपहत उपकरण वाला यह व्यक्ति पुं-नपुंसकवेद के उदय से आस्यपोषक प्रतिसेवी होता है। वह वेदोदय का निरोध नहीं कर सकता।) ५१५५.जह पढमपाउसम्मि, गोणो धाओ तु हरियगतणस्स।
अणुसज्जति कोहिबिं, वावण्णं दुब्भिगंधीयं॥ ५१५६.एवं तु केइ पुरिसा, भोत्तूण वि भोयणं पतिविसिटुं।
ताव ण होति उ तुट्ठा, जाव न पडिसेविओ भावो॥ प्रथम प्रावृड् में बलीवर्द (सांड) हरित घास खाकर दृप्त हो जाता है, और दुरभिगंधवाली मरियल गाय से समागम करता है। इसी प्रकार कुछेक पुरुष प्रतिविशिष्ट भोजन करके भी संतुष्ट नहीं होते जब तक कि वे आस्य-पोषक भाव का प्रतिसेवन नहीं करते। ५१५७.गहणं तु संजयस्सा, आयरियाणं व खिप्पमालोए।
बहिया व णिग्गयाणं, चरित्तसंभेयणी विकहा॥ वह पंडक प्रवजित हो जाने पर प्रतिसेवना के अभिप्राय से संयत का ग्रहण करता है। उस संयत को चाहिए कि वह शीघ्र ही आचार्य को यह बात कहे। यदि नहीं कहता है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अथवा वह पंडक उपाश्रय में एकान्त न पाकर बाहर विचारभूमी में गए हुए संयतों में चारित्रसंभेदिनी विकथा करता है। १.२. कथानक के लिए देखें-कथा परिशिष्ट, नं. ११७-११८ ।
५१५८.छंदिय गहिय गुरूणं, जो न कहे जो व सिट्ठवेहेज्जा।
परपक्ख सपक्खे वा, जं काहिति सो तमावज्जे॥ पंडक मुनि ने एक साधु को कहा-'तुम मेरी प्रतिसेवना करो, मैं तुम्हारी प्रतिसेवना करूंगा'-यह निमंत्रण उस साधु को दिया। इस प्रकार जिसको निमंत्रित किया और जिस साधु को उसने ग्रहण किया-ये दोनों गुरु को यह बात नहीं कहते अथवा कहने पर भी गुरु उपेक्षा करते हैं तो सभी को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। वह पंडक स्वपक्ष या परपक्ष में प्रतिसेवना करता हुआ जो उड्डाह को प्राप्त होता है उसके भागी सभी होते हैं। ५१५९.इत्थिकहाउ कहित्ता, तासि अवन्नं पुणो पगासेति।
समलं सावि अगंधिं, खेतो य ण एयरे ताई। वह पंडक स्त्रीकथा करते हुए कहता है-स्त्रियों का परिभोग सुखदायी होता है। और फिर उनका अवर्णवाद बोलता है। वह कहता है-स्त्रियां मलों का स्राव करती हैं, उनकी योनी दुर्गन्धयुक्त होती है, उनका परिभोग करने वाले पुरुष को खेद होता है। हमारे साथ प्रतिसेवना करने से ये दूषण नहीं होते। ५१६०.सागारियं निरिक्खति, तं च मलेऊण जिंघई हत्थं ।
पुच्छति सेविमसेवी, अतिव सुहं अहं चिय दुहा वि॥ . वह पंडक स्वयं का और दूसरे के सागारिक-लिंग को देखता है। वह सागारिक को अपने हाथों से मसलकर हाथों को सूंघता है। वह साधु को पूछता है तुमने पहले कभी नपुंसक के साथ प्रतिसेवना की या नहीं? उसकी प्रतिसेवना में अत्यंत सुख मिलता है। मैं नपुंसक हूं। दोनों-आस्यक और पोसक से मैं प्रतिसेवनीय हूं। ५१६१.सो समणसुविहितेसुं, पवियारं कत्थई अलभमाणो।
तो सेविउमारद्धो, गिहिणो तइ अन्नतित्थी य॥ वह पंडक सुविहित श्रमणों में प्रविचार-मैथुन की भावना कहीं भी प्राप्त न कर सकने के कारण गृहस्थों और अन्यतीर्थिकों के साथ प्रतिसेवना करने लगता है। ५१६२.अयसो य अकित्तीया, तम्मूलागं तहिं पवयणस्स।
तेसिं पि होइ संका, सव्वे एयारिसा मन्ने।। उससे प्रवचन का अयश और अकीर्ति होने लगी। जो नर्तक आदि थे उनके मन में भी यह शंका उत्पन्न हो गई कि ये सारे श्रमण भी ऐसे ही हैं, अर्थात् नपुंसक ही हैं। ५१६३.एरिससेवी सव्वे, वि एरिसा एरिसो व पासंडो।
सो एसो न वि अन्नो, असंखडं घोडमाईहिं॥ ये नपुंसक के साथ प्रतिसेवना करने वाले हैं। ये सभी
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