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=बृहत्कल्पभाष्यम् ५१३२.आसायणा जहण्णे, छम्मासुक्कोस बारस उ मासा। ५१३६.अणवटुं वहमाणो, वंदइ सो सेहमादिणो सव्वे।
वासं बारस वासे, पडिसेवओ कारणे भइओ॥ संवासो से कप्पइ, सेसा उ पया न कप्पंति॥ ५१३३.इत्तिरियं निक्खेवं, काउं चऽन्नं गणं गमित्ताणं। जो अनवस्थाप्य को वहन कर रहा है, जो सभी शैक्ष
दव्वाइ सुहे वियडण, निरुवस्सग्गट्ठ उस्सग्गो॥ मुनियों को वंदना करता है, उसके साथ संवास करना ५१३४.अप्पच्चय निब्भयया, आणाभंगो अजंतणा सगणे। कल्पता है। शेष पद नहीं कल्पते। वे ये हैं
परगणे न होंति एए, आणाथिरया भयं चेव॥ ५१३७.आलावण पडिपुच्छण, परियट्ठट्ठाण वंदणग मत्ते। किस प्रकार के गुणों से युक्त मुनि को अनवस्थाप्य दिया
पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव॥ जाता है?
आलपन-परस्पर बातचीत करना, प्रतिप्रच्छन, संहनन-वज्रऋषभनाराच हो, वीर्य-धृति हो, आगम परिवर्तन, उत्थान-अभ्युत्थान, वंदनक, मात्रक का देना-लेना, अर्थात् नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु तक सूत्रतः और प्रत्युपेक्षण, संघाटक, भक्तदान-आहार-पानी देना-लेना, साथ अर्थतः परिचित हो, इन सबकी विधि से जो संपूर्णरूप से में आहार करना आदि। भावित हो, तपस्वी हो, निग्रहयुक्त हो, प्रवचन के सार में अर्थ के रहस्यों का ज्ञाता हो।
पव्वज्जादि-अजोग्ग-पदं ___ जो गच्छ से निर्मूढ़ हो जाने पर भी तिलतुषमात्र का भी अशुभभाव मन में नहीं है, ऐसा मुनि नि!हण के
तओ नो कप्पंति पव्वावेत्तए, तं योग्य होता है। इन गुणों से रहित व्यक्ति नि!हणा के योग्य जहा-पंडए वाइए कीवे॥ नहीं होते।
(सूत्र ४) ___इन गुणों से युक्त व्यक्ति पारांचिक योग्य स्थान को प्राप्त करता है। इन गुणों से विप्रमुक्त व्यक्ति यदि पारांचिकापत्ति ५१३८.न ठविज्जई वएसुं, सज्जं एएण होति अणवट्ठो। प्राप्त करता है, फिर भी उसके मूल प्रायश्चित्त ही प्राप्त
दुविहम्मि वि न ठविज्जइ, लिंगे अयमन्न जोगो उ॥ होता है।
दोषों से उपरत व्यक्ति को तत्काल महाव्रतों में आरोपित आशातनापारांचिक जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः नहीं किया जाता, इसलिए उसे अनवस्थाप्य कहा जाता है। बारह मास तक गच्छ से नियूंढ़ रहता है। प्रतिसेवना- यह अनन्तर सूत्र में कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में अन्य पारांचिक जघन्यतः एक संवत्सर तक तथा उत्कृष्टतः बारह अर्थात् पंडक दोनों प्रकार के अर्थात् द्रव्य और भावलिंग में संवत्सर पर्यन्त संघ से नियूंढ रहता है।
स्थापित नहीं किया जाता, यह प्रतिपाद्य है। यह योग है, जो पारांचिक स्वीकार करता है वह नियमतः आचार्य संबंध है। होता है। इसलिए इत्वर गणनिक्षेप आत्मतुल्य शिष्य में करके ५१३९.वीसं तु अपव्वज्जा, निज्जुत्तीए उ वन्निया पुब्।ि आचार्य अन्य गण में जाकर वहां प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल,
इह पुण तिहिं अधिकारो, पंडे कीवे य वाईया। भाव की आलोचना परगण के आचार्य के पास करे। दोनों बीस प्रकार के मनुष्य अप्रव्राज्य होते हैं, यह पहले आचार्य निरुपसर्ग के लिए कायोत्सर्ग करें।
नियुक्ति में वर्णित किया गया है। प्रस्तुत में तीन का अधिकार अपने गण में पारांचिक स्वीकार करने पर अगीतार्थ है, अर्थात् पंडक, क्लीव और वातिक-ये तीन प्रव्राजनीय नहीं मुनियों का आचार्य के प्रति अविश्वास होता है। वे निर्भय हो होते क्योंकि ये गुरुतर दोष से दुष्ट होते हैं। जाते हैं। अपने गण में आज्ञाभंग और अयंत्रणा होती है। ५१४०.गीयत्थे पव्वावण, गीयत्थे अपुच्छिऊण चउगुरुगा। परगण में ये दोष नहीं होते। वहां भगवान् की आज्ञा-पालन में
तम्हा गीयत्थस्स उ, कप्पइ पव्वावणा पुच्छा। स्थिरता आती है तथा आत्मा में भय भी रहता है।
गीतार्थ मुनि ही प्रव्राजना देने का अधिकारी है। गीतार्थ ५१३५.सेहाई वंदंतो, पग्गहियमहातवो जिणो चेव। भी यदि बिना पूछे प्रव्रज्या देते हैं तो उन्हें चतुर्गुरुक का
विहरइ बारस वासे, अणवठ्ठप्पो गणे चेव॥ प्रायश्चित्त आता है। इसलिए गीतार्थ को भी पृच्छापूर्वक शैक्ष मुनियों को भी वंदना करता हुआ, जिनकल्पी की। प्रव्राजना करना कल्पता है। भांति महान् तपस्या को स्वीकार कर विहरण करने वाला- ५१४१.सयमेव कोति साहति, मित्तेहिं व पुच्छिओ उवाएणं। अनवस्थाप्य मुनि बारह वर्ष तक गण में रहता है।
अहवा वि लक्खणेहिं, इमेहिं नाउं परिहरेज्जा॥
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