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= बृहत्कल्पभाष्यम्
किया। जिस किसी ने भोग भोगने की मनाही की उसे प्रतिमा षडलघुक, मेरे बिना गच्छ टूट जाएगा, यह सोचता है उसे का शिरच्छेद कर यह दिखाया कि मनाही करने वाले का चतुर्गुरु, मैं स्थविरों का संग्रहण करूंगा, यह सोचता है उसे इसी प्रकार शिरच्छेद कर दिया जायेगा।
चतुर्लघु और जो गुरु का वैयावृत्य करने के लिए प्रतिसेवना ४९५०.तरुणीण य पक्खेवो, भोगेहिं निमंतणं च भिक्खुस्सा करता है उसे लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह
भोत्तुं अणिच्छमाणे, मरणं च तहिं ववसियस्स॥ प्रायश्चित्त की हानि का लेखा-जोखा है। तरुण साधुओं का तथा तरुण स्त्रियों का अन्तःपुर में ४९५५.लहुओ उ होति मासो, प्रक्षेप किया। तरुण स्त्रियों ने भोग की प्रार्थना की। भोग का
दुब्भिक्खऽविसज्जणे य साहूणं। निमंत्रण पाकर एक भिक्षु ने इन्कार कर दिया। उसको मार
णेहाणुरागरत्तो, डाला गया, उसका शिरच्छेद कर दिया गया।
खुड्डो चिय णेच्छए गंतुं॥ ४९५१.दट्टण तं विससणं, सहसा साभावियं कइतवं वा। १९५६.कालेणेसणसोधिं, पयहति परितावितो दिगिंछाए।
विगुरुव्विया य ललणा, हरिसा भयसा व रोमंचो॥ अलभंते चिय मरणं, असमाही तित्थवोच्छेदो। उस स्वाभाविक साधु का शिरच्छेद देखकर अथवा 'यहां दुर्भिक्ष होगा' यह सोचकर यदि गुरु संघ को प्रतिमा का झूठा किया जाने वाला शिरच्छेद देखकर अथवा विसर्जित नहीं करता, उसे लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। विकुर्वीत अलंकृत-विभूषित ललना को देखकर किसी के हर्ष दुर्भिक्ष में भिक्षा न मिलने पर गच्छ भूख से पीड़ित होता है। से या भय से रोमांच हो जाता है।
कालक्रम से मच्छ के मुनि एषणाशुद्धि को छोड़ देते हैं। ४९५२.सुद्धुल्लसिते भीए,
भोजन न मिलने पर मुनियों का असमाधि मरण होता है और पच्चक्खाणे पडिच्छ गच्छ थेर विदू। गच्छ का व्यवच्छेद भी हो जाता है। एक क्षुल्लक मुनि गाढ़ मूलं छेदो छम्मास चउर
स्नेह से अनुरक्त होने के कारण उस आचार्य को छोड़ कर
गुरु-लहु लहुगमासो॥ जाना नहीं चाहता था। (फिर भी उसे भेज दिया और वह वहां जिसने भोग भोगने से विरत होकर मरण को स्वीकार से भाग कर आचार्य के पास लौट आया।) किया वह शुद्ध है। जो भोग का निमंत्रण प्राप्त कर रोमांचित ४९५७.भिक्खं पि य परिहायति, हुआ उसका प्रायश्चित्त है-मूल और जो भय से भोग भोगता
भोगेहिं णिमंतणा य साहुस्स। है उसका प्रायश्चित्त है-छेद। जो भक्तप्रत्याख्यान कर भोग गिण्हति एक्कंतरियं, भोगता है, उसे षट्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। मैं जीवित
लहुगा गुरुगा चउम्मासा॥ रहा तो प्रतीच्छक शिष्यों को वाचना दूंगा, यह सोच जो ४९५८.पडिसेवंतस्स तहिं, छम्मासा छेदो होति मूलं च। भोग भोगता है उसे षड्लघु का प्रायश्चित्त आता है। मैं गच्छ
अणवट्ठप्पो पारंचिओ य पुच्छा य तिविहम्मि। की सारणा करूंगा, यह सोच कर जो भोग भोगता है उसे वह स्वयं गोचरी जाने लगा। दुर्भिक्ष के कारण भिक्षा भी चतुर्गुरु, और जो स्थविरों की वैयावृत्य करने के लिए नहीं मिलती। उस साधु को एक स्त्री ने भोगों के लिए प्रतिसेवना करता है उसे चतुर्लघुक और कोई आचार्य की निमंत्रण दिया। उसको कहा-तू मेरे साथ रह, मैं तुझे प्रचुर वैयावृत्य के लिए प्रतिसेवना करता है उसे मासलघु का भक्तपान दूंगी। वह मुनि एकान्तर तप स्वीकार कर प्रतिसेवना प्रायश्चित्त आता है।
करता है। प्रथम दिन की प्रतिसेवना का चार लघुमास, दूसरे ४९५३. निरुवहयजोणिथीणं, विउव्वणं हरिसमुल्लसिते मूलं। दिन मुनि अभक्तार्थ था। तीसरे दिन प्रतिसेवना का चार
__ भय रोमंचे छेदो, परिण्ण काहं ति छग्गुरुगा। गुरुमास। इस प्रकार एकान्तरित भक्तपान लेकर प्रतिसेवना ४९५४.मा सीदेज्ज पडिच्छा, गच्छो फिट्टेज्ज थेर संघेच्छं। करते हुए मुनि के पांचवें और सातवें दिन छह लघु मास और
गुरुणं वेयावच्चं, काहं ति य सेवतो लहुओ॥ छह गुरुमास, नौवें दिन छेद, ग्यारहवें दिन मूल और तेरहवें निरुपहतयोनि वाली स्त्रियों को विभूषित-मंडित देखकर दिन अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। पन्द्रहवें दिन पारांचिक जो हर्षित होता है और वह प्रतिसेवना करता है तो 'मूल', प्रायश्चित्त। शिष्य पूछता है-तीन प्रकार के मैथुन में इच्छा भय से रोमांच होने पर छेद, परिज्ञा–भक्तप्रत्याख्यान करूंगा, कैसे उत्पन्न होती है? यह सोचकर जो प्रतिसेवना में परिणत होता है उसे ४९५९.वसहीए दोसेणं, दट्टं सरिउं व पुव्वभुत्ताई। षड्गुरुक। प्रतीच्छक दुःखी न हों, यह सोचता है उसे तेगिच्छ सद्दमादी, असज्जणा तीसु वी जतणा।।
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