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लेकर खा लेते हैं। वे मुनि अशठ-राग-द्वेष रहित, सालंबन और अमूर्छित होने के कारण शुद्ध हैं।
तओ पारंचिया पण्णत्ता, तं जहा-दुढे पारंचिए, पमत्ते पारंचिए, अण्णमण्णं करेमाणे पारंचिए॥
(सूत्र २)
४९६८.एत्थं पुण अधिकारो, अणुघाता जेसु जेसु ठाणेसु।
उच्चारियसरिसाइं, सेसाई विकोवणट्ठाए॥ प्रस्तुत सूत्र में अनुद्घातिक का अधिकार है-प्रयोजन है। जैसे-हस्तकर्म, मैथुन और रात्रीभोजन ये सारे अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के स्थान हैं। शेष लघुप्रायश्चित्त के स्थानों का निरूपण उच्चारितार्थ सदृश होने के कारण शिष्यों को बताने के लिए किया गया है। ४९६९.वुत्ता तवारिहा खलु, सोधी छेदारिहा अध इदाणिं।
देसे सव्वे छेदो, सव्वे तिविहो तु मूलादी॥ तपोर्ह शोधि पूर्वसूत्र में कही गई है। प्रस्तुत सूत्र में छेदार्ह शोधि कही जा रही है। छेद दो प्रकार का होता है-देशतः
और सर्वतः। देशतः छेद पांच रातदिन से प्रारंभ होकर छह मासान्त तक होता है। सर्वछेद मूल आदि के भेद से तीन प्रकार का है-मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक। यहां पारांचिक छेद का अधिकार है। ४९७०.छेओ न होइ कम्हा, जति एवं तत्थ कारणं सुणसु।
अणुघाता आरुवणा, कसिणा कसिणेस संबंधो॥ शिष्य ने पूछा-सूत्र में छेद का उल्लेख क्यों नहीं? आचार्य कहते हैं-यदि तुम्हारी ऐसी बुद्धि है तो उसका कारण सुनो। अनन्तरोक्त सूत्र में अनुद्घात आरोपणा का कथन है। वह कृत्स्ना-गुरुक होती है। यहां भी पारांचिक आरोपणा कृत्स्ना है। इन दोनों कृत्स्नाओं का संबंध है। ४९७१.अंचु गति-पूयणम्मि य, पारं पुणऽणुत्तरं बुधा बिंति।
सोधीय पारमंचइ, ण यावि तदपूतियं होति॥ अञ्चु धातु के दो अर्थ हैं-गति और पूजा। जिस प्रायश्चित्त के पालन से साधक संसारसमुद्र के पार अर्थात् तीर सदृश निर्वाण को प्राप्त हो जाता है वह है पारांचिक प्रायश्चित्त। यह तीर्थंकरों की वाणी है। इसका दूसरा अर्थ है- साधक शोधि के पार चला जाता है, वह है पारांचिक। यह अंतिम प्रायश्चित्त है। इससे आगे कोई प्रायश्चित्त नहीं है।
बृहत्कल्पभाष्यम् यह प्रायश्चित्त अपूजित नहीं होता, किन्तु पूजित ही होता है। जो साधक इस तपस्या का पार पा जाता है, वह श्रमण संघ द्वारा पूजित होता है। ४९७२.आसायण पडिसेवी, दुविहो पारंचितो समासेणं।
एक्केक्वम्मि य भयणा, सचरित्ते चेव अचरित्ते॥ संक्षेप में पारांचित के दो प्रकार हैं-आशातना पारांचित और प्रतिसेवना पारांचित। पुनः प्रत्येक में दो प्रकार की भजना है ये दोनों सचारित्री के भी हो सकती हैं और अचारित्री के भी। ४९७३.सव्वचरित्तं भस्सति, केणति पडिसेवितेण तु पदेणं।
कत्थति चिट्ठति देसो, परिणामऽवराहमासज्ज॥ किसी अपराधपद के आसेवन से सारा चारित्र भ्रष्ट हो जाता है और किसी एक अपराधपद के सेवन से चारित्र का एक देश रह जाता है। इसका कारण है परिणामों की तीव्रता, मंदता और अपराध की उत्कृष्टता, मध्यमता और जघन्यता। ४९७४.तुल्लम्मि वि अवराधे, परिणामवसेण होति णाणत्तं।
कत्थति परिणामम्मि वि, तुल्ले अवराहणाणत्तं॥ अपराध की तुल्यता में भी परिणामों की तीव्रता-मंदता के कारण उसमें वैचित्र्य होता है, नानात्व होता है। कहीं-कहीं परिणामों की तुल्यता में भी अपराध का नानात्व होता है। ४९७५.तित्थकर पवयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए।
एते आसायंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ __तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर, तथा महर्द्धिक मुनि-जो इनकी आशातना करता है उसके प्रायश्चित्त की मार्गणा होती है। ४९७६.पाहुडियं अणुमण्णति, जाणतो किं व भुंजती भोगे।
थीतित्थं पि य वुच्चति, अतिकक्खडदेसणा यावि॥ कोई कहता है-प्राभृतिका-देवविरचित समवसरण, महाप्रातिहार्यादि पूजा लक्षण वाले कार्य को अर्हत् मान्य करते हैं, यह उचित नहीं है। अर्हत् जानते हुए भी विपाकदारुण भोगों को क्यों भोगते हैं? स्त्रीतीर्थंकर की बात भी समीचीन नहीं है। तीर्थंकरों की देशना अतिकर्कश होती है। दुरनुचर होती है। ४९७७.अण्णं व एवमादी, अवि पडिमासु वि तिलोगमहिताणं।
पडिरूवमकुव्वंतो, पावति पारंचियं ठाणं॥ इस प्रकार तथा अन्य प्रकार से भी तीर्थंकरों का अवर्णवाद बोलता है, त्रैलोक्यपूजित भगवान् की प्रतिमाओं की निन्दा करता है तथा उनकी वंदना-स्तुति नहीं करता वह पारांचिक स्थान को प्राप्त होता है।
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