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चौथा उद्देशक
उस मैथुन की इच्छा की उत्पत्ति में ये कारण बनते हैं- लिए वानमन्तरदेव की पूजा करनी होती है और वह वसति के दोष से अर्थात् स्त्री, पशु, पंडकयुक्त वसति में रहने वानव्यंतर देव साधुओं को रात्री में भोजन कराने से ही से, स्त्री का आलिंगन आदि देखने से या पूर्वभुक्त भोगों की संतुष्ट होता है। स्मृति करने से। उसकी चिकित्सा है-अवमौदर्य, निर्विकृतिका ४९६४. एक्केक्कं अतिणेउं, निमंतणा भोयणेण विपुलेणं। आदि। उसके अतिक्रान्त हो जाने पर शब्द की यतना करनी भोत्तुं अणिच्छमाणे, मरणं च तहिं ववसितस्स। चाहिए। इसका तात्पर्य है कि जहां स्त्रीशब्द या रहस्यशब्द इसलिए (अध्वनिर्गत साधु जो वहां पहुंचे थे, उनमें से) सुनाई देता हो वहां स्थविर मुनि के साथ रहना चाहिए। शब्द एक-एक साधु को राजभवन में बलपूर्वक प्रवेश कराकर आदि के श्रवण में गृद्धि नहीं रखनी चाहिए। इस प्रकार द्रिव्य विपुलसामाग्री युक्त भोजन के लिए निमंत्रित किया जाता है। आदि तीनों प्रकार के मैथुन की यतना होती है।
जो भोजन करना नहीं चाहते उनका शिरच्छेद कर मरण प्रास ४९६०.बिइयपदे तेगिंछं, णिव्वीतियमादिगं अतिक्कते। करवा दिया जाता है।
सनिमित्तऽनिमित्तो पुण, उदयाऽऽहारे सरीरे य॥ ४९६५.सुद्धल्लसिते भीए, अपवादपद में जब निर्विकृतिका आदि चिकित्सा
पच्चक्खाणे पडिच्छ गच्छ थेर विदू। अतिक्रान्त हो जाती है तब शब्द आदि की मर्यादा में रहना
मूलं छेदो छम्मास चउरो चाहिए। मैथुन की अभिलाषा सनिमित्त भी होती है और
मासा गुरुग लहुओ॥ अनिमित्त भी। सनिमित्त में वसति के दोष आदि से होती है जिस मुनि ने रात्री भोजन से विरत होकर मरण को और अनिमित्त में उसके कारण हैं-(१) कर्मोदय (२) आहार स्वीकार किया वह शुद्ध है। जो रात्री भोजन का निमंत्रण तथा (३) शरीर की अभिवृद्धि।
पाकर रोमांचित हुआ उसको मूल, जिसने भय से रात्रीभक्त ४९६१.रातो य भोयणम्मि, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। का सेवन किया उसको छेद, जो भक्तप्रत्याख्यान कर
आणादिणो य दोसा, आवज्जण संकणा जाव॥ रात्रीभक्त का सेवन करता है उसे षड्गुरु, 'मैं जीवित रहा तो रात्रीभोजन करने पर चार अनुद्घातमास-गुरुमास का प्रतीच्छकों को वाचना दूंगा' ऐसा सोचकर रात्रीभक्त करने प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। तथा वाले को षड्लघु, गच्छ की सारणा करूंगा ऐसा सोचने वाले प्राणातिपात आदि विषयक तथा परिग्रह विषयक आदि दोष को चतुर्गुरु और स्थविरों की वैयावृत्य करूंगा ऐसा सोच कर भी होते हैं। यहां यावत् शब्द से 'रात्रिभक्तसूत्र' (प्र. उद्दे. रात्रीभक्त का सेवन करता है उसे चतुर्लघु, आचार्य की सू. ४२,४३) जो अभिहित है, वह सारा यहां नेतव्य है। वैयावृत्य के लिए रात्रीभक्त का सेवन करता है उसको ४९६२.णिरुवद्दवं च खेमं च, होहिति रण्णो य कीरतू संती। मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
अद्धाणनिग्गतादी, देवी पूयाय अज्झियगं॥ ४९६६.तत्थेव य भोक्खामो, अणिच्छे भुंजामो अंधकारम्मि। इसमें अपवादपद यह है-निरूपद्रव अर्थात् अशिव तथा कोणादी पक्खेवो, पोट्टल भाणे व जति णीता॥ गलरोग का अभाव तथा क्षेम-शत्रुसेना के उपद्रव का अभाव बलात् रात्री में भोजन करने के लिए कहने पर साधु होगा यह सोच कर राजा अपने राज्य में शांति के लिए कहे-हम अपने उपाश्रय में जाकर भोजन करेंगे। वे यदि तपस्वियों को रात्री में भोजन कराता है। अध्वनिर्गत साधु इसके लिए तैयार न हों तो उनसे कहे-हम अंधकार में भोजन वहां पहुंचते हैं। अथवा राजा की किसी एक रानी ने करेंगे। इस प्रकार अंधकारयुक्त स्थान में जाकर कहीं कोनों में वानव्यंतर देव की यह 'अज्झियकं'-मनौती की थी कि मेरा कवल का प्रक्षेप करते रहें। अथवा वस्त्र में पोटली बांधकर प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर मैं तपस्वियों को रात्रिभोजन । फेंक देते हैं। यदि अपने साथ भाजन ले गए हों तो उनमें डाल कराऊंगी।
देते हैं। ४९६३.अवधीरिया व पतिणा, सवत्तिणीए व पुत्तमाताए। ४९६७.गेलण्णेण व पुट्ठा, बाहाङऽरुची व अंगुली वा वि।
गेलण्णेण व पुट्ठा, वुग्गहउप्पादसमणे वा। भुजंता वि य असढा, सालंबाऽमुच्छिता सुद्धा॥ वह रानी,पति के द्वारा अपमानित हो गई हो अथवा जो अथवा वे साधु कहते हैं-हम ग्लानत्व से स्पृष्ट हैं। हमने सौत हो. जो पत्र की माता हो वह इसको बहमान न देती हो. पहले बाहाड-बहत खा लिया है। ग्लानत्व से वह अत्यंत स्पृष्ट हो, अथवा उससे कलह हो नहीं है। अथवा मुंह में अंगुली डालकर वमन कर देते हैं। गया हो, उस विग्रह को मिटाने के लिए, उसके शमन के इतना करने पर भी यदि वे नहीं हटते तो उस भोजन से थोड़ा
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