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चौथा उद्देशक
कोई कहता है - मिथ्यादृष्टि नपुंसक से और कोई कहता है परतीर्थिक नपुंसक से हस्तकर्म कराओ। इन चारों को हस्तकर्म करने की प्रेरणा देने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त, तप और काल से विशेषित होते हैं। इसमें वे हाथ आदि धोते हैं, यह पश्चात्कर्म होता है इसमें भी वही प्रायश्चित्त है।
४९४०. एसेव कमो नियमा, इत्थीसु वि होइ आणुपुब्वीए ।
चउरो य अणुग्घाया, पच्छाकम्मम्मि ते लहुगा ॥ यही क्रम नियमत क्रमशः स्त्री संबंधी होता है। जैसेपहला कहता है सिद्धपुत्रिका से, दूसरा कहता है - गृहस्थ की स्त्री से, तीसरा कहता है- मिथ्यादृष्टि स्त्री से और चौथा कहता है - परतीर्थिकी स्त्री से हस्तकर्म कराना चाहिए। चारों में प्रायश्चित्त है - अनुद्घातिक गुरुमास । पश्चात्कर्म होने पर वे ही चारों लघुमास का प्रायश्चित्त है। ४९४१.मेहुण्णं पि यतिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च ।
ठाणाई मोत्तूणं, पडिसेवणि सोधि स च्चेव ॥ मैथुन भी तीन प्रकार का है- दिव्य, मानुष्य और तैरश्च । जिन स्थानों में इन मैथुनों की संभावना हो वहां नहीं रहना चाहिए। यदि वहां रहकर दिव्य आदि मैथुन की प्रतिसेवना करता है तो उसकी शोधि (प्रायश्चित्त) वही है जो प्रथम उद्देशक में गाथा २४७० में कहा है। ४९४२. मूलुत्तरसेवासुं, अवरपदम्मिं णिसिज्झती सोधी । मेहुणे पुण तिविधे, सोधी अववायतो किण्णु ॥ मूल और उत्तरगुण की प्रतिसेवना में उत्सर्ग से अपरपद अर्थात् अपवाद पद में शोधि (प्रायश्चित्त) का निषेध किया जाता है। इसी प्रकार तीनों प्रकार के मैथुन में अपवाद से प्रतिसेवना करने पर प्रायश्चित्त क्यों ?
४९४३. राग - दोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा । आराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेणं ॥ आचार्य कहते हैं-प्रतिसेवना दो प्रकार की होती हैदर्पिका और कल्पका । राग-द्वेषयुक्त जो प्रतिसेवना होती है, वह दर्पिका प्रतिसेवना कहलाती है। कल्पिका प्रतिसेवना इन दोनों से मुक्त होती है। कल्प प्रतिसेवना से ज्ञान आदि की आराधना होती है और दर्प प्रतिसेवना से उनकी विराधना होती है।
४९४४. कामं सव्वपदेसु वि, उस्सग्ग ऽववादधम्मता जुत्ता ।
मोत्तुं मेहुणभावं, ण विणा सो राग-दोसेहिं ॥ हमें सभी पदों में उत्सर्ग- अपवाद धर्मता अनुमत है। उत्सर्ग का प्रतिषेध और अपवाद की अनुज्ञा - यह अनुमत है। किन्तु मैथुनभाव को छोड़कर, क्योंकि इसमें उत्सर्ग धर्मता
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ही घटित होती है, अपवाद नहीं। मैथुनभाव राग-द्वेष के बिना नहीं होता।
४९४५. संजमजीवितहेउं,
कुसलेणालंबणेण वऽण्णेणं ।
भयमाणे तु अकिच्चं, हाणी वड्डी व पच्छित्ते ॥ संयमी जीवन जीने के लिए कुशल आलंबन के द्वारा अथवा अन्य किसी आलंबन से यदि अकृत्य का आसेवन करता है तो उसके प्रायश्चित्त की हानि या वृद्धि होती है। ४९४६. गीयत्थो जतणाए, कडजोगी कारणम्मि णिद्दोसो |
एगेसिं गीत कडो, अरत्तऽदुट्ठो तु जतणाए । गीतार्थ मुनि जो कृतयोगी है, वह यदि यतनापूर्वक कारण में - प्रतिसेवना करता है तो वह निर्दोष है। गीतार्थ कृतयोगी निष्कारण प्रतिसेवना - यह द्वितीय भंग है, सदोष है । किन्हीं आचार्यों ने वहां पांच पद माने हैं - गीतार्थ कृतयोगी अरक्त- अद्विष्ट यतना से सेवन करता है - यह पहला भंग है। गीतार्थ कृतयोगी अरक्त- अद्विष्ट अयतनापूर्वक सेवन करता है - यह दूसरा भंग है। इस प्रकार पांच पदों से ३२ भंग होते हैं। यहां भी प्रथम भंग में कल्पिका प्रतिसेवना माननी चाहिए।
४९४७.जति सव्वसो अभावो, रागादीणं हविज्ज निद्दोसो । जतणाजुतेसु तेसु तु, अप्पतरं होति पच्छित्तं ॥ यदि मैथुन में राग आदि का सर्वथा अभाव हो तो वह निर्दोष हो सकता है। परन्तु यतनायुक्त गीतार्थ आदि मुनियों के अल्पतर प्रायश्चित्त होता है।
४९४८. कुलवंसम्मि पहीणे, रज्जं अकुमारगं परे पेल्ले ।
तं कीरतु पक्खेवो, एत्थ य बुद्धीए पाधण्णं ॥ किसी राजा का कुल और वंश प्रक्षीण हो जाने पर राज्य को अकुमारक जानकर दूसरे राजा उस पर आक्रमण कर देते हैं। अमात्य ने राजा से कहा- आप रानी में अपर पुरुष का बीज प्रक्षिप्त कराइए। यहां उपाय के निरूपण में बुद्धि का प्राधान्य है।
४९४९. सामत्थ णिव अपुत्ते,
अणहबियतरुणरोधो,
सचिव मुणी धम्मलक्ख वेसणता ।
एगेसिं पडिमदायणता ॥
अपुत्र नृप अमात्य के साथ 'सामत्थणं' पर्यालोचन करता है। अमात्य ने कहा- राजन् ! आप अन्तःपुर में धर्मकथा के मिष से मुनियों को प्रवेश कराएं। राजा ने वैसे ही किया । तब उन साधुओं को लक्षणों से जानकर, एक तरुण साधु को जिसके सन्तानोत्पत्ति का बीज उपहत नहीं था, उसको वहीं रोक लिया और उसे बलात् भोग भोगने के लिए प्रेरित
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