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=बृहत्कल्पभाष्यम् को राख में मिलाकर उनका परिष्ठापन करे। पानक का सचित्त स्त्रीरूप होता है। प्रतिश्रय में जो स्त्री आती है वह परिष्ठापन यतनापूर्वक करे, गाढ़तर परितप्त उपाश्रय की आगन्तुक होती है। भूमी में छिटकाव करे या प्यास से अभिभूत देह का सिंचन ४९१७.आलिंगणादी पडिसेवणं वा, करे। कोई प्रत्यनीक कुछ मंत्र आदि करे तो उसके उपशमन
द8 सचित्ताणमचेदणे वा। के लिए अशिवप्रशमनी प्रतिमा का निर्माण करे। प्रसूति के सद्देहि रूवेहि य इंधितो तू, प्रशमन के लिए क्षार का प्रक्षेपण करे। सेल्ल का अर्थ
मोहग्गि संदिप्पति हीणसत्ते॥ है-बालमय सिन्दूर। वहां क्षार का क्षेपण करना चाहिए।
सचित्त-सचेतन स्त्रियों के आलिंगन आदि तथा ४९११.कम्मं असंकिलिटुं, एवमियं वण्णियं समासेणं। प्रतिसेवना को देखकर अथवा अचेतन स्त्रियों के रूपों को
कम्मं तु संकिलिटुं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ देखकर अथवा प्रतिसेव्यमान स्त्रियों के शब्दों को सुनकर, इस प्रकार यह असंक्लिष्ट हस्तकर्म संक्षेप में वर्णित है। उन शब्दों और रूपों से कामवासना के लिए प्रज्वलित होकर अब यथानुपूर्वी संक्लिष्ट हस्तकर्म कहूंगा।
किसी शक्तिहीन मुनि के मोहाग्नि प्रदीप्त हो जाती है। तब ४९१२.वसहीए दोसेणं, दट्ट् सरितुं व पुव्वभुत्ताई। अनेक दोष उत्पन्न होते हैं।
__ एतेहिं संकिलिटुं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ ४९१८.कोतूहलं च गमणं, सिंगारे कुड्डछिद्दकरणे य।
वसति को दोष से, या स्त्रियों के आलिंगन आदि को दिद्वे परिणय करणे, भिक्खुणो मूलं दुवे इतरे॥ देखकर या पूर्वभुक्त भोगों का स्मरण कर उत्पन्न होने वाला उसके मन में कुतूहल उत्पन्न होता है कि निकटता से हस्तकर्म संक्लिष्ट होता है। वह मैं संक्षेप में कहूंगा। देखें, तब वह उस ओर गमन करता है अथवा शृंगारयुक्त गीत ४९१३.दुविहो वसहीदोसो, वित्थरदोसो य रूवदोसो य। गाने वाली के निकट जाता है या भीत में छिद्रकर उससे
दुविहो य रूवदोसो, इत्थिगत णपुंसतो चेव॥ देखता है। देख कर वह मुनि भी उस भाव में परिणत होकर वसतिदोष दो प्रकार का होता है-विस्तर दोष और 'मैं भी ऐसा करूं' यह सोचकर वह आलिंगन आदि करता रूपदोष। रूपदोष के दो प्रकार हैं-स्त्रीरूपगत और नपुंसक है। उस मुनि को 'मूल' तक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा 'दो रूपगत।
इतर' अर्थात् उपाध्याय और आचार्य को क्रमशः अनवस्थाप्य ४९१४.एक्केक्को सो दुविहो, सच्चित्तो खलु तहेव अच्चित्तो।। और पारांचिक तक प्रायश्चित्त आता है।
अच्चित्तो वि य दुविहो, तत्थगताऽऽगंतुओ चेव॥ ४९१९.लहुतो लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेद मूल दुगमेव। इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-सचित्त और अचित्त। अचित्त दिद्वै य गहणमादी, पुव्वुत्ता पच्छकम्मं च॥ भी दो प्रकार का है-तत्रगत और आगंतुक।
वहां जाकर सुनने पर मासलघु, कुतूहल होने पर ४९१५.कटे पुत्थे चित्ते, दंतोवल मट्टियं व तत्थगतं। मासगुरु, वहां जाने पर चतुर्लघु, श्रृंगार सुनने पर चतुर्गुरु,
एमेव य. आगंतुं, पालित्तय बेट्टिया जवणे॥ भींत में छिद्र करने पर षड्लघु, छिद्र से देखने पर षड्गुरु, जो स्त्री की प्रतिमा काष्ठगत, पुस्तगत, अथवा चित्रगत तद्भाव परिणत होने पर छेद, आलिंगन आदि करने पर होती है अथवा जिस वसति में स्त्रीप्रतिमा दन्तमय, मूल-यह भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त है। उपाध्याय के मासगुरु उपलमय या मृत्तिकामय होती है वह तत्रगत है। इसी प्रकार से प्रारंभ होकर अनवस्थाप्य तक जाता है। आचार्य के आगंतुक होती है। यहां पादलिप्त आचार्य कृत राजकन्या का चतुर्लघु से पारांचिक तक प्रायश्चित्त जाता है। आरक्षिक दृष्टांत है। यवन देश में इस प्रकार के स्त्रीरूप प्रचुरता से द्वारा देखे जाने पर ग्रहण-आकर्षण आदि पूर्वोक्त दोष तथा होते थे।
आलिंगन आदि करते समय प्रतिमा टूट सकती है। उससे ४९१६.पडिवेसिग-एक्वघरे, सचित्तरूवं तु होति तत्थगयं। पश्चात्कर्म दोष होता है।
सुण्णमसुण्णघरे वा, एमेव य होति आगंतुं॥ ४९२०.अप्पो य गच्छो महती य साला, पड़ौसी के घर में अथवा एकगृह में अर्थात् कारणवश एक
निकारणे ते य तहिं ठिता उ। ही उपाश्रय में रहने पर जो स्त्रीरूप दिखता है वह तत्रगत
कज्जे ठिता वा जतणाए हीणा, सचित्तरूप है। अथवा शून्यगृह या अशून्यगृह में जो स्त्री का
पावंति दोसं जतणा इमा तू॥ रूप दिखता है वह भी तत्रगत होता है। इसी प्रकार आगंतुक एक छोटा गच्छ बड़े प्रतिश्रय में रह रहा है। साधु वहां १. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १०५।
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