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=बृहत्कल्पभाष्यम्
त्रिक का निक्षेप सात प्रकार का होता है-नामत्रिक, स्थापनात्रिक, द्रव्यत्रिक, क्षेत्रत्रिक, कालत्रिक, गणनात्रिक
और भावत्रिक। ४८८७.दव्वे सच्चित्तादी, सच्चित्तं तत्थ होइ तिविहं तु।
दुपय चतुप्पद अपदं, परूवणा तस्स कायव्वा॥ द्रव्यत्रिक के तीन प्रकार हैं-सचित्तत्रिक, अचित्तत्रिक और मिश्रत्रिक। सचित्तत्रिक के तीन प्रकार हैं-द्विपदत्रिक, चतुष्पदत्रिक और अपदत्रिक। उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। ४८८८.परमाणुमादियं खलु, अच्चित्तं मीसगं च मालादी।
तिपदेस तदोगाढं, तिण्णि व लोगा उ खेत्तम्मि॥ परमाणुत्रिकादि आदि शब्द से द्विप्रदेशिकत्रय यावत् अनन्तप्रदेशिकत्रय अचित्त है। मालादित्रिक मिश्रत्रिक है। तीन प्रदेशों में अवगाढ़ द्रव्य क्षेत्रत्रय है अथवा तीन लोक हैंऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक ये क्षेत्रत्रय हैं। ४८८९.तिसमय तद्वितिगं वा, कालतिगं तीयमातिणो चेव।
भावे पसत्थमितरं, एक्केक्कं तत्थ तिविहं तु॥ तीन समय, त्रिसमयस्थितिक, या कालत्रिक-अतीत, अनागत और वर्तमान। भाव दो प्रकार का है-प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र-यह प्रशस्त है। मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति यह अप्रशस्त है। ४८९०.उग्घातमणुग्याते, निक्खेवो छव्विहो उ कायव्वो।
नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य भावे य॥ उद्घातिक और अनुद्घातिक शब्द के छह-छह प्रकार के निक्षेप होते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। ४८९१.उग्घायमणुग्घाया, दव्वम्मि हलिद्दराग-किमिरागा।
खेत्तम्मि कण्हभूमी, पत्थरभूमी य हलमादी॥ द्रव्यतः उद्घातिक है-हरिद्राराग और अनुद्घातिक हैकृमिराग। क्षेत्रतः उद्घातिक है कृष्णभूमी और अनुद्घातिक है प्रस्तरभूमी। क्योंकि हल, कुलिक आदि से कृष्णभूमी खोदी जा सकती है, प्रस्तरभूमी अशक्य होती है। ४८९२.कालम्मि संतर णिरंतरं तु समयो य होतऽणुग्घातो।
भव्वस्स अट्ठ पयडी, उग्घातिम एतरा इयरे॥ कालतः उद्घातिक है-सान्तर प्रायश्चित्त और अनुद्घातिक है-निरन्तर प्रायश्चित्तदान। भाव से उद्घातिक हैं भव्य प्राणी की आठ कर्म प्रकृतियां और अनुद्घातिक हैं अभव्य की कर्मप्रकृतियां। ४८९३.जेण खवणं करिस्सति, कम्माणं तारिसो अभव्वस्स।
ण य उप्पज्जइ भावो, इति भावो तस्सऽणुग्घातो॥ जिससे अभव्य व्यक्ति अपने कर्मों का क्षपण कर सके
वैसा भाव उसमें उत्पन्न नहीं होता। उसका भाव अनुद्घात होता है, वह कर्मों का उद्घात नहीं कर सकता। अतः उसके कर्म अनुद्घातिक होते हैं। ४८९४.हत्थे य कम्म मेहुण, रातीभत्ते य होतऽणुग्घाता।
एतेसिं तु पदाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं। हस्तकर्म करना, मैथुनसेवन करना और रात्रीभोजन करना इन तीनों का अनुद्घातिक प्रायश्चित्त (गुरु प्रायश्चित्त) आता है। इन तीनों पदों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करूंगा। ४८९५.नाम ठवणाहत्थो, दव्वहत्थो य भावहत्थो य।
दुविहो य दव्वहत्थो, मूलगुणे उत्तरगुणे य॥ नामहस्त, स्थापनाहस्त, द्रव्यहस्त और भावहस्त-इस प्रकार हाथ चार प्रकार का होता है। द्रव्यहस्त दो प्रकार का है-मूलगुणनिर्वर्तित और उत्तरगुणनिर्वर्तित। मूलजीव के गुण से निर्वर्तित हस्तमूलगुणनिर्वर्तित हस्त तथा काष्ठ, चित्र लेप्य कर्म आदि में निर्वर्तितहस्त उत्तरकर्मनिवर्तित हस्त कहलाता है। ४८९६.जीवो उ भावहत्थो, णेयव्वो होइ कम्मसंजुत्तो।
बितियो वि य आदेसो, जो तस्स विजाणओ पुरिसो॥ जीव का कर्मसंयुक्त हस्त अर्थात् आदान-निक्षेप आदि क्रियायुक्त, भावहस्त जानना चाहिए। इस विषयक दूसरा आदेश-मत भी है-उस हस्त का ज्ञायक पुरुष भी भावहस्त है। ४८९७.नाम ठवणाकम्मं, दव्वकम्मं च भावकम्मं च।
दव्वम्मि तुण्णदसिता, अधिकारो भावकम्मेणं॥ कर्मपद के चार निक्षेप हैं-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म। द्रव्यकर्म है-तुनना, दशिकाओं को बांधना। यहां भावकर्म का अधिकार है। अतः भावहस्त से जो कर्म होता है वह हस्तकर्म है। ४८९८.दुविहं च भावकम्मं, असंकिलिटुं च संकिलिटुं च।
ठप्पं तु संकिलिटुं, असंकिलिटुं तु वोच्छामि। भावकर्म दो प्रकार का होता है-असंक्लिष्ट और संक्लिष्ट। जो स्थाप्य होता है वह संक्लिष्ट है। अब मैं असंक्लिष्ट भावकर्म की बात कहूंगा। ४८९९.छेदणे भेयणे चेव, घंसणे पीसणे तहा।
अभिघाते सिणेहे य, काये खारे त्ति यावरे॥ असंक्लिष्ट कर्म के आठ प्रकार हैं-छेदन, भेदन, घर्षण, पेषण, अभिघात, स्नेह, काय तथा क्षार। ४९००.एक्केक्कं तं दुविहं, अणंतर परंपरं च णायव्वं ।
अट्ठाऽणट्ठा य पुणो, होति अणट्ठाय मासलहुँ।
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